ओ पिया परदेसिया ये धान की रोपनी ( विरहन व्यथा )

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21984
dhan ropai
पिछले साल बैसाख में भौजी गवना करा के आई थी,ककन छूटे दू दिन हुआ था और मेहँदी अभी छूटा नहीं था कि चार दिन बादे गेंहू का कटिया शुरू हो गया। हाय! रे किसानी…
 
मजबूरी भी तो थी।करेंगे नहीं तो खाएंगे का ? जोखन उस दिन मेहरारू को देखकर खूब तेज गाना गाये थे…”जइसन खोजले रहनी ओइसन धनिया मोर बाड़ी..सांवर ना गोर बाड़ी हो……”
 
भौजी लजाकर घूंघट काढ़ धीरे से कही थी…”भक्क”
 
दूसरे दिन पसीना से भौजी का सिंदूर भीगकर काजल से मिल गया था…तब उन नाजूक हाथों से बोझा नहीं उठ रहा था..बड़े असहाय नज़रों से भौजी ने जोखन की तरफ देखा था.मानों मन ही मन गा रहीं हों…
 
‘नइहर के दुलरुई हईं बाड़ा सुकुवार ए पिया..
कंटिया ना होई हमसे राखs बनिहार ए पिया’..
 
हाय!…….इतना सुनते ही जोखन के करेजा से परेम फफाकर बहने लगा था..”अरे हमार मेहरारू”। देखते ही देखते जोखन बोझा अपने कपार पर ले लिए..’छोड़ दs आराम करा हम बानी न”…..
 
आस-पास के लोग देखकर हंसने लगे……”बाप रे जोखना अपनी मेहरारू को केतना मानता है न “?
 
अगेले दिन तो रमेसर बो चाची जोखन के माई से खेते में कह दी…..
 
“इहे सीरी देवी आईल बाड़ी हो ?…ना बोझा ढ़ोये के लूर ना गेंहू काटे के सहूर..”
 
फिर तो जोखन को संगी साथी भी चिढ़ाने लगे..
 
“जोखना त एकदम निरहू हो गइल बा बियाह के बाद…”
 
लेकिन साहेब..जइसे तइसे दँवरी खतम हुआ..जोखन दँवरी करा कर अनाज,भूसा घर पर रक्खे…और पइसा कमाने नवेडा चले गए। भौजी खूब रोई।
 
इधर तीज बीत गया,रक्षाबन्धन,दीवाली और दुर्गा भी पूजा भी, लेकिन जोखन नहीं आए। भौजी को दुर्गापूजा की गुरही जिलेबी थोड़ा भी नीक नहीं लगा।
 
छठ में भी आस देखते-देखते जोखन नहीं आऐ।होली में दूध से नहीं भौजी ने आँखि के लोर से सानकर पुआ बनाया और रो-रोकर फोन पर कहा…
 
“आग लागो तहरा रुपिया कमइला के..अइसन कमाई के कवन काम ? जब बरीस-बरीस के दिन आँखि के सोझा संवाग ना रहे…”।
 
जोखनजइसे-तइसे मेहरारू को समझाये थे..”मान जा हमार करेजा..रोपनी के समय आएंगे रेवती के सोनरा से मंगटीका बनवाएंगे..बनारसी साड़ी खरीदेंगे और शीशमहल में निरहुआ वाला फिलिमो दिखाएँगे।
कहतें हैं तब भौजी मान गयी थी।
 
आज उहे दंवरी के गए जोखन एक्के बेर रोपनी में आ रहें हैं.रोपनी चालू है….दिन भर के रोपनी से लस-लस शरीर हो जा रहा…गार्नियर और हेड एन्ड शोल्डर से लेकर सनसिल्क और डभ तक लटीआईल बाल साफ़ करते समय हाथ खड़े कर दें रहें हैं ।
 
लक्स,पियर्स और सर्फ एक्सल के बस कि बात नहीं की जोखन बो भौजी आ जोखन के देह पर लगी माटी को ठीक से साफ़ कर दे…ई सब महंगा सरफ साबुन शेम्पू तो एसी में रहने वालों के लिए बनें हैं जी।
 
अरे! ई किसान का शरीर है..एकदम देसी..माटी में पैदा हुआ माटी में बढ़ा और माटी से सना…इसके लिये दू रुपिया वाला मालिक साबुन और पियरकी माटी ही सूट करता है।
 
दिन भर धान रोपते कितना थक जाती है भौजी।लेकिन बिया टूंगकर खेत में जब डालती है तब चेहरे की चमक देखते बनती है। मानों धान नहीं भौजी सोना रोप रहीं हों।
 
इधर इकलौती ननद बबीतवा अपनी भौजी और भइया को देखकर मुस्कराती है..और सहसा कंठ से रोपनी के गीत फूट पड़तें हैं.. भौजी आँचर को कमर में खोस कर गाती है…
“ननदी भउजीया रे ऐके समउरिया
मिल जुली पनिया के जाली हो राम…..
ननदी के हाथवा में सोने के घड़िलवा
भौजी के हाथ रेशम डोर ए राम…
घोड़वा चढ़ल अइले राजा के लरिकवा
तनी मोर घइला अलगइते ए राम….”
ये भी गीत कई बार मुझे स्तब्ध कर जाता है..क्या विडम्बना है..लोक में गरीबी और अभाव ने किन किन कल्पनावों को जन्म दिया है,ये रोपनी,सोहनी कटनी के गीत सुनने के बाद ही पता चलता है…
 
पता न किस सुर-ताल के इंजीनियर ने इस आत्मा के गीत की धुन बनाई है…..सुनने के बाद रोम रोम आनंद से नहा जाता है..अभाव में उपजी कल्पना कितनी मुग्ध करने वाली है।
 
सोने का घड़ा लेकर दो लड़कियां कुएं पर जाएँ…और राजा का लड़का थका प्यासा उनसे पानी मांगे…..ऐसा सम्भव है क्या ?..
 
शायद बहुत पहले ये पता चल गया था कि कल्पना झूठ ही क्यों न हो…एक पल को आदमी वर्तमान के सुख दुख भूलकर एक झूठा सुख महसूस कर लेता है।
 
यही कल्पना और यही उम्मीद को सिरहाने रखकर ही तो एक किसान सोता और जागता है..शायद जोखन बो भौजी भी।
 
अब भौजी का नया समाचार है..नई उम्मीद है। परेशान हैं कि जल्दी से रोपनी खतम हों तो आवे वाला नन्हका के बाबू नवेडा काम करने जाएँ।
 
5% ब्याज पर कर्जा लेकर बियड़ लगाया है इस साल। ऊपर से डाई यूरिया पोटास आ टेक्टर के लेव लगवाई…धान में कीड़े न लगें तो दवाई का छिड़काव करना होगा।
 
बरखा बरसेगा की नहीं इहो ठीक नहीं,त मातादीन राय के टिबूल से पानी भी चलाना पड़ेगा न । इसी में पर साल बबीतवा का बियाह करना है।
 
कुछ कमायेंगे,कुछ धान बेचेंगे…आगे के दुआर पर करकट लगाना है,आजी कहती है कि बबुआ-बबुनी आएगा तो एक गाय भी तो खरीदना पड़ेगा न ?
 
फिर नइहर में बियाह पड़ा है एक कान में का नहीं बनेगा तो नइहरवा में सब यही न कहेंगे कि “कवना दलीदरा के घरे बियाह भइल बा रे एकर” ?
 
तभी तो आजकल जोखन और जोखन बो भौजी की आंखें रोज नज़रें उठती हैं इस आस के साथ कि “हे भगवान…आप तो आसाढ़ से लेकर कात्तिक तक क्षीर सागर सोने चले जातें हैं योग निद्रा में…
 
बाकी बुनी-बरखा नहीं हुआ तब तो हमारा सब अरमान पानी-पानी हो जाएगा..” सारे सपने मर जाएंगे..ब्याज पर पैसा लेकर खेती करने वाला जोखन जैसा किसान एक निरीह की तरह जब आसमान की तरफ देखेगा और पानी के जगह कुछ नहीं मिलेगा, उलटे मुआवजा में 46 रुपया का चेक मिलेगा तो आत्महत्या ही न करेगा ?…
 
अरे! किसान धान नही रोपता। वो उम्मीदों को रोपता है….सपनों को सींचता है।
 
धरती का करेजा भी फटता है जब उसका ये लाल आत्महत्या करता है…..पता न ये लाल कब तक कंगाल रहेगा?..अपने हाड़-मांस की कमाई से सबका पेट भरने वाला कब तक भूखा सोएगा….?
 
एसी में बैठकर कृषि नीति बनाने वाले कब खेतों की तरफ रुख करेंगे…. किसानों की लाश पर राजनीति करने वाले नेता कब उनका दर्द समझेंगे?
 
बन्द कमरे में रेनी डे को एंज्वॉय बन्द करके वाले लोग अपने आरामदायक घरों से निकलर ये देखने कब जाएंगे कि हमारे घर में पकने वाला फ्राइ राइस आता कहाँ से है..वो कौन से हाथ हैं जो इन्हें रोपतें हैं और सींचतें हैं..
 
इस प्रक्रिया में कितने अदम्य जिजीविषा,मेहनत और धैर्य की जरूरत होती है।
 
एक दिल से यही हूक उठती है कि काश खेती में इतना फायदा होता कि किसी जोखन को रोपनी करने के बाद नोएडा और दिल्ली न जाना पड़ता..भौजी होली दिवाली दशहरा खुश होकर मनाती….काश।
 
बस दुआ है ईश्वर से कि खूब अच्छी बारिश हो ताकि किसी जोखन के उम्मीदों की फसल खूब लहलहाए और हमारे देश का कोई किसान कभी आत्महत्या न करे।
 
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