छठ पूजा- दुःख का ढंग अलग है लेकिन रंग एक है।

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रात के साढ़े नौ बज रहे हैं। अंधेरी में हुई आठ घण्टे की एक लंबी सीटिंग के बाद आँखों के सामने अब अंधेरा छानें लगा है। जाना तो आरामनगर भी था। लेकिन देह को आरामनगर जाने से ज्यादा कमरे पर जाकर आराम करने की जरूरत महसूस होती है। मन होता है कि जल्दी से जाकर, नहाया जाए और कुछ खाकर बस सो लिया जाए।

इधर ओला के ड्राइवर साहब कह रहे हैं,”भइया,बस दो मिनट रुकिये मैं आता हूँ,कैंसिल मत करियेगा प्लीज!”

मेरे मुंह से अचानक निकल जाता है, “जल्दी आवा मरदे, ना त हम सुत जाइब, रोडवे पर”

उधर से वो हंसते हैं। इधर मैं ड्राइवर का नाम पढ़ता हूँ। नाम से ऐसा लगता है,जैसे कोई अपनी तरफ का आदमी होगा। बलिया,मऊ, छपरा,सिवान, गोपालगंज या आरा का कोई चालीस-पचास साल का आदमी।

लेकिन थोड़ी देर में ड्राइवर साहब आते हैं। नाम बुजुर्गो का है लेकिन उम्र ज्यादा नहीं है। मुझे देखते ही मास्क को सरकाते हैं,थोड़ा मुस्कराते हैं, मैं हड़बड़ी में बैठ जाता हूँ…चलिए…

“ओटीपी बताइये भइया,तब न..!

ओटीपी देने के थोड़ी देर बाद जाम के ताम-झाम से लड़ाई शुरू हो जाती है। समझ नही आता है ये गाड़ियों की लाइन कब ख़तम होगी। तभी धीरे से आवाज़ आती है…!

“फिलिम लाइन में हैं का भइया आप ?”

मैं हँसता हूँ, “ना भाई,लाइन में नहीं हैं,अभी क्रॉसिंग पर खड़े हैं..”

ड्राइवर साहब फिर हँसते हैं,”नहीं, मतलब हम कहे कि इधर तो उहे सब लोग रहता है।”

मैं क्या कहूँ समझ नहीं आता है। धीरे से पूछता हूँ, “छठ में घरे काहें ना गइनी ह ?’

ड्राइवर साहब फिर स्पीड स्लो कर देते है। उन्हें आश्चर्य है कि कोई भोजपुरी में इतने सम्मान से कैसे बोल सकता है।

वो थोड़ी देर तक जबाब नहीं देतें हैं। पहले वो मेरा गांव कहाँ है ये पूछते हैं, फिर मैं यहां कहाँ रहता हूँ और क्या करता हूँ इसकी जानकारी लेते हैं।

इसके बाद बताते हैं कि भइया बलिया जिला से ही नकल मारकर हम दस पास किये हैं और तबसे छह साल दूसरा काम किये, उसके बाद से ऑटो चला रहे हैं। जेतना लोग फिलिम लाइन में है न,उनको हम देखते ही चिन्ह जाते हैं।”

मैं फ़िर दोहराता हूँ…”छठ में घरे ना गइनी ह का ?”

ड्राइवर साहब फिर बात काट कुछ और बात करने लगते हैं।

इधर मेरी आँख झपकने लगी है कि तभी कानों में आवाज़ जाती है।

“होखी न सहाय छठी मइया..”

मेरी नींद खुल जाती है। मैं देख रहा ड्राइवर साहब नें गीत बजा दिया है। अभी भी जाम ही लगा हुआ है। लेकिन आस्था के इस महापर्व पर गाये जाना वाला ये गीत चित्त में लगे जाम को ख़तम कर रहा है।

ड्राइवर साहब स्टेयरिंग पर ही ताल दे रहें हैं।

मैं उनको कैसे कहूँ कि ये ताल दीपचन्दी है गुरु, आप जहां ताली लगा रहे हैं..वहां खाली आती है।

लेकिन लोक मानस शास्त्र का इतना ख़्याल नही करता। उसका यही अनगढ़पन तो उसका वास्तविक सौंदर्य है।

मैं धीरे से फिर पूछता हूँ, “छठ में घरे काहें ना गइनी ह ?’

“अब का कहीं भइया, पन्द्रह दिन बाद बहिन के बियाह बा, सोचतानी कुछ और पैसा जुटा ली..”

ये कहने के बाद उनके चेहरे पर एक अजीब किस्म की पीड़ा है,निराशा है। मैं फिर कुछ नहीं पूछता। जाम खुलने का इंतज़ार करता हूँ।

मैनें तबसे किसी से नहीं पूछा कि छठ में आप घर नहीं गए का ?

मुझे उस ओला ड्राइवर का जिम्मेदारीयों के जाम में फंसा चेहरा याद आता है।

लगता है दुःख के ढंग अलग हो सकते हैं, रंग हमेशा एक ही होता हैं…

छठ माई जाम में फंसे इन जैसे तमाम लोगो के दुःख दूर करें।

इसी मंगल कामना के साथ छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं…! 🙏

अतुल

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