सरसो पियरा चुका है…हवा जब-जब बहती है,तब-तब मटर के फूल,गुलाब के महंगे फूल को मात देते हैं। चना पर ओस की बूंदों को देखकर,मन मुदित हुआ जाता है। धूप होते ही नवम्बर से लेकर जनवरी तक तंग रजाई की तरह सिकुड़ा गाँव किसी बत्तीस चोंप वाले तम्बू की तरह फैल जाता है।

खेत की तरफ देखने पर आँखों में बैठा शहरी अंधेरा बासंती स्पर्श से छँटने लगता है,मानों वर्षों से जमी निराशा की गर्द को ये बसंत धो रहा हो।

इधर देख रहा स्वीगी,जोमैटो,फूडपांडा के ऑफर पर बर्गर खाकर कोलेस्ट्रॉल बढा चूकी युवा पीढ़ी,जो नवेडा,गुरुग्राम के किसी कार्पोरेट ऑफिस से दिन भर खटनी करने के बाद सीधे गाँव की तरफ दस्तक दे चूकि है..वो कुलांचें भर रही है..
किसी को नेटवर्क से दिक्कत है..किसी को ठंड से।
किसी को इससे कि लोग आठ बजे ही सो क्यों जा रहें हैं। लेकिन सबके चेहरे पर एक शांति से भरा उत्साह है..शहर की भागा दौड़ी और आपाधापी में ऊब रही ज़िन्दगी को इन दो-चार दिनों में गाँव ने विश्राम दिया है।
ड्रेस पर ड्रेस खरीदे जा रहें हैं। किसी के साली के घर बियाह में जाना है किसी को सरहज के। किसी के नानी के गाँव शादी किसी के मौसी के यहाँ।

पहले दिन ही पता चला आज मोनुआ का तिलक है। पश्चिम टोला में गहमागहमी है। कुर्सी,टेंट,सामियाना लग रहा है…गाने बज रहे हैं..मिठाइयाँ पर मिठाइयाँ छन रही हैं। चार बजे ही बुनिया का रस और बड़की गर्म पूड़ी,आलू-गोभी की सब्जी तैयार हो चूकी है।
पहले शिव जी के इहाँ भोग लगेगा..बाबा जी लोग खाएंगे तब न कोई पाएगा जी..?
लीजिये शाम को तिलक शुरू हो गया..सिरपाल यादो पगड़ी बांधकर बैठे हैं..महिलाएं गा उठती हैं..
“झारी पीताम्बर राजा दशरथ बइठले
आवs जनकपुर के लोग हो..”
सिरपाल यादो का मुंह देखते बनता है..तनिक भी नहीं लग रहा कि दिन भर गोबर, भूसा,दूध की तरह गन्धाने वाले वही सिरपाल हैं जो दिन भर में डेढ़ हजार गारी देते हैं।
लेकिन जैसे-जैसे तिलक चढ़ रहा..उनका मन मुसकाता जाता है। मानों सही में राजा दशरथ ही बैठे हों..बेटा राजा राम हो गया हो औए समधी हो गए हों राजा जनक..
अरे! पता है आपको ? शादियाँ हजारों सालों में बहुत हुई हैं..लेकिन राम-सीता की तरह शादी आज तक न हुई। इसी का परिणाम है कि हमारी लोक चेतना ने इस स्मृति को आज तक सम्भालकर रखा है…अपनी लोक गीतों में।
शादी में दिन भर कोचिंग पढ़ाने वाला मोनुआ तिलक के समय राजा रामचंद्र हो जाता है..और दिन भर दूध बेचने वाले सिरपाल यादो राजा दशरथ हो जातें हैं..
और जनकपुर हो जाता है बेटी का गाँव और घर..
अगले दिन देख रहा भरी दुपहरिया में बांस काटा जा रहा है। अब क्या होगा जी ? तो पता चला कि सिंमगल के लड़की की बारात आनी है..आज माड़ो छाना है।
देयाद,पट्टीदार,रिश्तेदार जमा हो रहें हैं..नकुल के हाथ में टाँगी है..बिसेसर के हाथ में हँसुआ । बांस की कोइन काटा जा रहा है..

एक साथ खड़ी तीन-तीन पीढ़ी मदद कर रही है..मानों सबके घर बरात आनी हो..सबके बेटी की शादी हो…
महिलाएं गाय के गोबर से आँगन लीप देती हैं..घर के कोने-कोने एक सुंदर सी गमक बिखेर देते हैं..
हल्दी लगाई जा रही है…चुमावन हो रहा है।
माड़ो छवाते ही गीत निकल जातें हैं.
“आज जनकपुर में मड़वा बड़ा सोहावन लागे
सीता के चढ़ेला हरदिया मनभावन लागे…
कल पता चला कि भीम मिसिर उर्फ धांसन बाबा साली के यहां से नेवता करके लौटे हैं..मझिली साली ने जूता चुराकर कहा है कि.. “ई बताइये हमारी डीपी लाइक क्यों नहीं करते हैं जी ? .क्या हम उस पम्मीया से भी खराब दिखते हैं..?
धाँसन बाबा उर्फ जीजा जी का जीव सकेता में पड़ गया है। सोचते हैं क्या जमाना बदल गया है हे डीह बाबा….कैसी-कैसी सलियाँ हो गई हैं। किसी जमानें में बलिहार से चौबे छपरा,चन्दन बैलगाड़ी में बैठकर जाता था और गूँजा निहाल हो जाती थी और पीढ़ा पर बैठाकर थरिया में गोड़ धोते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा देती थी कि “दीदीया और बबुआ का हाल-चाल कहिये पाहुन..कहिये की दुबराई है कि मोटाई है…? कब लेके आएंगे ?

लेकिन जा रे स्मार्ट जमाना.. गूंजा भी होती तो शायद चंदन से इसी के लिए लड़ाई होती कि तुमने आते वक्त दीपा सत्ती के पास सरसो के खेत मे मेरा फ़ोटो क्यों न क्लिक किया ? व्हाट्सएप ग्रुप क्यों छोड़ दिया…इंस्टा वाली डीपी देखी..?
आज बलिया शहर में पदार्पण के दो दिन बाद मैं घर आ रहा हूँ। देख रहा गाँव से गुज़रने वाली रेलवे लाइन डबल हो रही है। विद्युतीकरण जारी है..प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से बनी सड़क जहां-तहाँ उखड़ने लगी है…मेरे घर के आगे स्वच्छ भारत अभियान का कूड़ेदान लग गया है..जिसमें बच्चे झूला झूल रहें हैं।
घर आते ही बहन पानी लेकर दौड़ती है..भतीजा पैर छूने दौड़ता और नहाने बैठ जाता है.. मैं माँ से पूछ रहा हूँ…दुबली काहें हो गई हो ?

वो देर तक खामोशी है। हर बार वो मुझसे यही सवाल पूछती है इस बार मैंने ये सवाल कर दिया है..लेकिन झट से बात काटकर बहन से कह देती है…जरा मटर तोड़ो घुघनी बनाओ इसके लिए..
मैं क्या कहूँ… चुप ही रहता हूँ। खेत की तरफ देखने लगता हूँ.. मानों वो मेरी तरफ देख रहे हों..और पूछ रहें हो “और पर्यटक साहब कैमरा मैन..शहर में सब ठीक है न ?

क्या कहूँ उदास हो जाता हूँ..कैसे कहूँ कि ठीक है भी, नहीं भी..अख़बार में रोज छप रहा कि हवा में जहर घुला है…घरों में लोग ठूसे गए हैं. सरकार अतिक्रमण तोड़ रही है।
लेकिन दो दिन बाद देख रहा…सामनें गाँव से आए कुछ मेरी तरह शहराती लोग शहर जा रहें हैं..पता चला शादी में आए थे अब जा रहें हैं। बीबी का यहाँ मन ही नहीं लगता। बच्चे तो खूब खेलते हैं…मैडम को तकलीफ होती है..सो चार दिन से ज्यादा नहीं रुकती हैं..फिर बच्चों का स्कूल है इनका ऑफ़िस।
मैं भी दो दिन बाद चला जाऊंगा..
खटिया पर बैठकर सोचने लगता हूँ कि सरकार विलेज टूरिज्म को बढ़ावा देने पर विचार कर रही है..शहरों में बाटी-चोखा रेस्टुरेंट,और देसी खाना जैसे महंगे रेस्टुरेंट खोलकर शहर में गाँव को बेचा जा रहा है…और लालटेन के प्रकश में खटिया पर बैठकर 800 रूपया थाली वाला खाना खाकर हम फीलिंग ऑसम करते हुए खुश होकर सेल्फ़ी ले रहे हैं। लहालोट हो रहें हैं।
लेकिन हकीकत में ऐसी विडम्बना उतपन्न हो गई है कि हम अपने गाँव आने पर चाहकर भी चार दिन से ज्यादा रुक नहीं सकतें हैं।
शहर के टू बीएचके फ्लैट में अगर दो गेस्ट आ जाएं तो सोचना पड़ता है कि कहाँ उठाए कहाँ बैठाएं.. लेकिन गाँव में घर के घर ऐसे ही वीरान पड़े हैं..कोई रहने वाला नहीं। सब दो-चार दिन के लिए टूरिस्ट बनकर आ रहें हैं और चले जा रहें हैं..
रात होती है…ठंड गहराती है…थककर गहरी नींद में सो गया मैं सपना देख रहा कि पवन एक्सप्रेस खाली जा रही है..दिल्ली जाने वाली स्वतंत्रता सेनानी और सद्भावना को सरकार ने घाटे के कारण बंद कर दिया है। नोएडा गुरुग्राम वाली कंपनियां अब बलिया गाजीपुर में खुलने लगी हैं..
गाँव का मोनू अब घर से ही ड्यूटी करने जाता है और शाम को घर चला आता है।लोग खूब खुश हैं..गाँव मे रौनक चार दिन की नहीं,स्थायी है..
लेकिन अचानक नींद टूट जाती है…सपना भी।
देख रहा गाँव के सूने दालान में शहर की तरफ मुँह किये कुछ कुत्ते बोल रहें हैं..कि हमारी विडंबनाओं पर हँस रहें हैं…पता नहीं।
लेकिन गाँव अभी वहीं का वहीं है। वही पगडंडिया,
खेत,सिवान,बाग-बगइचा,पीपर-पाकड़ कुआँ सब…
कहीं दूर गायत्री ठाकुर की आवाज आ रही है..
चलते डहरिया पीरा जालाs पाँव रे
जोन्हीयों से दूर बा बलमुआ के गाँव रे.
