रोना-कोरोना और मैला आँचल…

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वैशाख से लेकर आसाढ़ तक जहाँ ज़िंदगी का स्वाद तीन पैसा लबनी मिलता था और हलवाहे-चरवाहे भी जहाँ नबाबी करते हुए कहते थे..

“तीन आने लबनी ताड़ी,रोक साला मोटर गाड़ी…”

ठीक उसी नबाबी ताड़बन्ना में एक नीलहे साहेब डब्ल्यू.जी. मार्टिन नें अपनी कोठी बनाई थी…मार्टिन की खूबसूरत बीबी थी मेरी।

मेरी कलकत्ता में रहती थी। इतनी खूबसूरत कि उसके इलाके में आते ही इलाके का नाम हुआ मेरीगंज..

लेकिन दुर्भाग्य ये कि मेरी के मेरीगंज आने के एक सप्ताह बाद ही उसे जड़ैया ने पकड़ लिया..तीन दिन तक कुनैन की गोली का कुछ असर न हुआ तब मार्टिन नें पूर्णिया अस्पताल जाने के लिए रौतहट रेलवे स्टेशन का रुख कर लिया।

मार्टिन के स्टेशन पहुंचने से दस मिनट पहले ही पूर्णिया जानें वाली ट्रेन निकल चुकी थी…

कहतें हैं मार्टिन नें अपना पुखराज घोड़ा पूर्णिया की तरफ़ दौड़ा दिया..रेल गाड़ी पूर्णिया पहुँचती, इससे पहले मार्टिन का हवागाड़ी घोड़ा पूर्णिया के सिविल सर्जन के पास पहुँच चुका था। लोगों नें दांतों तले उँगलियाँ दबा दी।

लेकिन सब कुछ बेकार हो गया…मेरी की मलेरिया से मौत हो गई…

मार्टिन रोते-रोते और इलाके में एक अदद अस्पताल खुलवाते-खुलवाते पागल हो गया.. और एक दिन कांके अस्पताल में उसकी भी मौत हो गई…

मार्टिन की तपस्या कहें या मेरिगंज का सौभाग्य ठीक उसी इलाके में पैंतीस साल बाद डिस्ट्रीट बोर्ड के अफसियर बाबू ने अस्पताल खुलवा दिया..और उसी अस्पताल में पटना से मेडिकल की पढ़ाई करके आए नवे-नवेले डॉक्टर प्रशांत बनर्जी..

कहतें हैं जिस मेरीगंज में बारहों वरन के लोग रहते थे..इनकीलास जिन्दाबाघ करते थे…मोमेंट के समय “फुटल धरतिया के भाग भारथ माता रोई रही गाते थे..”

वहाँ लोगों ने पूछा एक दूसरे से पूछा कि “डॉक्टर साहब किस जाति के हैं ?”

लेकिन वाह रे डॉक्टर साहब…मेरीगंज का दिमाग़ जीत लिया और कमली का दिल।

और कुछ दिन बाद मलेरिया-कालाजार का टीका खोजते-खोजते,लोगों का इलाज़ करते-करते डॉक्टर प्रशान्त कब कमली के प्रेम में बीमार हो गए पता न चला..

इसके आगे क्या कहें…?

रेणु का मैला आँचल गंवई लैंडस्केप का सबसे खबसूरत चित्र है। एक-एक शॉट,एक-एक एंगल इतने जीवंत लगतें हैं कि लगता है कि हम ख़ुद ही मेरीगंज हैं..

लेकिन आज मुझे उस धूल-फूल औए शूल की बात नहीं करनी है..

आज जब दुनिया भर में कोरोना का कहर है,तब न जानें क्यों मेरीगंज और डॉक्टर प्रशांत बनर्जी याद आ रहें हैं।

ये सच है कि हमनें हैजा,प्लेग,मलेरिया,कालाजार का वो कहर नहीं देखा जब गाँव के गाँव लाश में तब्दील हो जाते थे। लेकिन कोरोना का कहर हमारे सामने है।

कल मैं अपने उपन्यास के कथा क्षेत्र में दिन भर घूमते हुए सोच रहा था क्या बदला है इन सत्तर सालों में ?

आँचल मैला तो आज भी है।

आज भी तो कुनैन की टिकिया के भरोसे ही हजारों लाखों मेरी का इलाज़ हो रहा है। आज भी समस्या वहीं की वहीं खड़ी है..

आज भी देश के गाँव मेरीगंज ही हैं….लेकिन दुर्भाग्य कि उसके हिस्से में कोई डॉक्टर प्रशांत नहीं है।

यही सब सोचकर मन बेचैन सा रहता है..कल-परसों से न जानें क्यों अख़बार-टीवी सोशल मीडिया सब मिलकर डरा रहें हैं..इटली के लोगों का ट्वीट पढ़कर तो रूह कांप गई..

कल नाँव से यात्रा करते हुए एक नाविक ने कहा..”यहाँ भी कोरोना वायरस फैल गया तब बबुआ ? मैं चुप ही रह गया…

सोचता रहा कि अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते अस्पताल क्या लाखों की आबादी का बोझ सह पाएंगे.. ?

फिर क्या होगा हजारों-लाखों मजदूरों,रेहड़ी,ठेला वालो का ? खेतों में कटनी कर रहे किसानों का।

अरे! यहाँ तो पारस बाबा कैलाश बाबा से खैनी न मांगे तो उनका हंसुआ न चले.. और उत्तिम बो जगदम्बा बो से बीड़ी न मांगे तो उनका मनवे दुकइसन हो जाए..

यहाँ तो पूरी की पूरी व्यवस्था ही एक दूसरे पर आश्रित हो.. वहाँ लकडाउन जैसा कुछ हो गया तो ?

पता नहीं क्या होगा..बस अभी तो जो हो रहा उसे देखकर डर लग रहा..

हम देख देख रहें हैं कि जिन देशों का हैपी और हेल्थ इंडेक्स में सबसे ऊपर नाम है उन देशों के हेल्थ सिस्टम की कलई खुलकर सामने आ गई है..फिर हमारे यहाँ तो सब रामभरोसे है। लेकिन इस देश में कुछ लोग अपनी सुविधा के अनुसार सोचने के आदी हो गए हैं।

उनको लगता है कि उनकी तरह देश की जनता वर्क फ्रॉम होम से काम चला लेगी..

इनको कौन समझाए कि ये सब महज़ कुछ कारपोरेट ऑफिसों तक ही सीमित है।

किसी रेहड़ी वाले और ठेले वाले के पास वर्क फ्रॉम होम का ऑप्शन नहीं होता है। सब्जी वाला और दूध वाला,सफाई वाला,अख़बार और सिलेंडर वाला तो ऐसा सोच भी नहीं सकता है। पुलिस,फ़ौजी, डॉक्टर,नर्स और न जानें कितने लोग काम करना बन्द कर दें तो सारी व्यवस्था मरणासन्न हो जाए।

दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी आबादी वाला ये देश इतना विकसित नहीं हुआ है कि घरों में बैठकर सब कुछ ठीक कर ले।

इस देश में अधिसंख्य लोग रोज कुआं खोदकर प्यास बुझाते हैं।

इस विषम हालात में सरकार को चाहिए कि चीन इटली जैसे हालात उतपन्न उससे पहले दिहाड़ी मज़दूरों,ठेले,खोमचे वालों का ख्याल रखे।

हमारे देश में सबसे कम लोग पाए गए हैं और who हमारी तारीफ़ कर रहा इससे काम नही चलने वाला…

हाँ कल यूपी सरकार नें एक बेहतरीन फ़ैसला लिया है कि सभी दिहाड़ी मजदूरों के एकाउंट में पैसा भेजा जाएगा..

लेकिन जिनका कोई एकाउंट नहीं है उनका क्या ? और कौन मज़दूर है इसका निर्धारण इतना जल्दी कैसे हो जाएगा ?

फिर भी सभी राज्यों को तत्काल ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि रोज़ कमाने,खाने वालों को कोई दिक्कत न हो..वरना गांवों से शहरों में रोज़गार खोजने गई जनता को देखकर लगता है कि कोरोना से पहले ये लोग भूख और बेरोज़गारी से मर जाएंगे।

बाकी ईश्वर न करे,भारत को ये सब दिन देखना पड़े.. 😐🙏

atulkumarrai.com

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