परसो रात के सन्नाटे में अस्तित्व का साज बज रहा था कि बारिश नें कोरस करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते आसमान नगाड़े जैसा बजने लगा। हवा किसी हारमोनियम की भाथी जैसी तेज चलने लगी।
दरवाजे पर खड़े नीम,पाकड़,आम,अमरूद,जामुन और सागौन के पत्तों ने अपनी तान छेड़ दी और न जानें कब मुझे नींद आ गई पता न चला।
सुबह आंखों के सामनें खेतों का उदास मंजर था। देख रहा कि जिन पौधों को सूरज की आंखों के सामने मैनें कैमरे में कैद किया था,वो सारा फ्रेम बिगड़ गया है।
रात भर की बारिश नें गेंहू को सुला दिया है।मटर की हरियरी धूमिल हो गई है। सरसों के पौधे जमीन से सट गए हैं,ये क्या हुआ कि चना और मंसूरी जार-जार रो रहें हैं।
थोड़ी देर में दतुवन लेकर कपार पर गमछा बांधते हुए पूरब टोला के बाबा नें कहा,” काहो रामजी भाई,एह साल खेती से लागत निकल जाई की ना.. ?”
ये प्रश्न कोरोना के वायरस से ज़्यादा खतरनाक था।इस प्रश्न के उत्तर देने वालों के पास बीस उत्तर थे लेकिन सटीक किसी के पास उत्तर नहीं था। शायद रामजी के पास भी नहीं है और सरकार के पास भी नहीं।
देख रहा बादलों में छिपा सूरज अठखेलियाँ कर रहा। धूप होते ही गर्मी लगती है,छाँह होते ही ठंडी। बीच-बीच में बारिश। मौसम भी मेरे जीवन की तरह सतरंगी होने लगेगा, सोचा नहीं था।
हवा सनसनाती है..न जाने किस देश के चिरई-चुरूंग मेरे दरवाजे पर आ रहें हैं..अचानक पूरवा तेज़ बहती है तो पता चलता है कि नौ बजिया छपरा से छूटकर गौतम स्थान आ रही है..
इधर रेलवे स्टेशन पर होली में गाँव आए बहरवांसु अब एक-एक करके जाने लगे हैं..उनमें मेरे जैसे कई चेहरे हैं,जिनके हाथों में चावल,आटा,अंचार,गुझिया और घी का बैग है और स्टेशन छोड़ने आए मां-बाप,चाचा की उम्मीदें।
लेकिन आज न जानें क्यों अपने बेटों को विदा करने आए बापों के चेहरे मुझे अमरकांत की कहानी “डिप्टी कलक्टरी” के शकलदीप बाबू की याद दिलातें हैं..
सोच रहा कि अपने अरमानों को किसी बक्शे में बन्दकर बेटे-बेटी को बनारस,दिल्ली, इलाहाबाद पढ़ाता हर बाप शकलदीप ही हो जाता है न ? और हर मां जमुना हो जाती है।
लेकिन क्या बात थी कि रोज कहानियां पढ़कर सोने वाला मैं रात को ये कहानी पूरी नहीं कर पाया और सो गया..मुझे पता नहीं चला कि कहानी में नारायण बाबू डिप्टी कलेक्टर बनें या नहीं।
लेकिन रेलवे स्टेशन पर दिखे हजारों शकलदीप की विश्वास से भरी आंखें बतातीं हैं कि बबुआ नारायण ज़रूर डिप्टी कलेक्टर बनेंगे..
मुझे भी याद आया कि मैं भी किसी शकलदीप का नारायण ही हूँ.. शकलदीप नें सपना देखकर बुरा नहीं किया…आंखें सपने देखना बन्द कर दें तो क्या बचेगा जीवन में…
ट्रेन में जा रही भेड़ियाधसान की एक जोड़ी आँखों में सपने ही तो सवारी कर रहें हैं।आदमी दिल्ली,बम्बई कलकत्ता नहीं जाता बल्कि सपनें जातें हैं।
ट्रेन में साधुओं का एक जत्था भी है..दुनिया की भीड़ और भौतिकता के भेड़ियाधसान से उकताया हुआ।
मैं सोच रहा कि एक योगी भी तो सपना देखता है कि एक दिन वो इस भीड़ से दूर शांति को उपलब्ध होगा..
अब ट्रेन सीटी बजा रही है…गाँव की प्रेम बो भौजी पहली बार नवेडा जा रहीं हैं..बबुआ के पापा के हाथ में अटैची है,बोतल में पानी। मैं देख रहा उनके हाथ जुड़ रहें हैं गाँव की तरफ़..आंखें बंद करके न जानें क्या बुदबुदातीं हैं…
मानों गाँव मात्र खेत-खलिहान,घर-दुआर नहीं वरन कोई जीता-जागता देवता हो…उनसे आशीर्वाद मांगा जा रहा हो कि अब ध्यान देना ग्राम देवता।
छपरा से आने वाली नौ बजिया खुलने लगी है। असंख्य हाथ हिल रहें हैं। कुछ चेहरे उदास हैं..शायद पलायन का संगीत धरती का सबसे करुणतम संगीत है..जिसकी हर लाइन कोमल स्वर से सजी है।
मुझे कहीं नहीं जाना है..मेरे कंधे पर एक हाथ है..इस हाथ नें इस बार एक दूसरा सवाल पूछा है..
“कहो राई साहेब..इहाँ घर काहें बनवाए हो.. इकलौते हो तुम और बहनें घर चली जाएंगी तो गांव में कौन रहेगा रे मरदे ?
घर बनवाते तो शहर में बनवाते बुड़बक..देखो गाँव में जिसके पास पैसा हो रहा है,शहर भाग रहा है.. देखो सुरेंदर मास्टर को..तीन-तीन जगह जमीन ख़रीद लिया उनके लड़कों नें..
मैं चुप हूँ.. देख रहा कि हवा अब भी पूरुवा ही बह रही है..गेंहू के पौधे हील रहें हैं…लेकिन ये क्या कि संगीत की किताबों में लय की जितनी परिभाषाएँ पढ़ीं हैं मैनें,उनसे अलग ही इनका छंद है..
अब इस कंधे पर रखे जाने वाले हाथ से मैं कैसे कहूँ कि कल लेखक जो गाँव की बातें करता था,वो गाँव छोड़कर हमेशा के लिए कैसे चला जाएगा..लोग तो कहेंगे न कि लेखक सिर्फ़ शहर में रहकर किताबें और ब्लॉग बेचता है..अखबारों में संवेदना के गीत गाता है।
नहीं-नहीं ऐसा नहीं होगा.. !
जड़ों से कटा आदमी शब्दों की बाज़ीगरी करके लेखक बन सकता है आदमी नहीं बन सकता…
मुझे लेखक से पहले हर हाल में आदमी बनना था। अब इस सवाल पूछने वाले हाथ से कैसे कहूँ कि जिस माटी नें हमें पैदा किया उसके प्रति कृतज्ञता ही हमारे आदमी होने की पहली उद्घोषणा है..
मैं इस हाथ से कैसे कहूँ कि मेरे जिले का एक कवि दिल्ली,बम्बई,बनारस और कलकत्ता रहता था…लेकिन दो-तीन महीने में एक बार किसी बूढ़े साइबेरियन पक्षी की तरह अपने गाँव लौट आता था.. और तब लिखता था कि “
“आम की सोर पर मत करना वार
महुआ रोएगा रात भर”
इस हाथ से कैसे पूछूँ कि इतनी संवेदना कंक्रीट के बनें जंगलों में निकल पाएगी क्या ?
पता नहीं।
उस हाथ को बिना जबाब दिए चुप हो गया हूँ। उसकी आँखें मेरी चुप्पी का मजाक उड़ा रहीं हैं कि लेखक किस्म के लोग पगलेट हो जाते हैं..या तो अति यथार्थ में जीते हैं या अति कल्पना में..गाँव हिंदी के लेखकों के लिए बौद्धिक विलास का कच्चा माल है बबुआ.. और कुछ नहीं”
लेकिन कई बार चुप हो जाना बेहतर है।
रात गहरा रही है…
मां कह रही है कि गाँव के आखिरी घर के सरजू बाबा के प्राण जानें वालें हैं।
देख रहा कि गांव भर को सुबह-सुबह उठकर पचास गाली देने वाले सरजू बाबा के खटिया के सामने रामचरित मानस की चौपाइयाँ गूँज रहीं हैं..
हित-मीत,दोस्त,दुश्मन सब इकट्ठा हैं..सबकी आँख संवेदना की करुण पुकार से भरी है..सोच रहा अगर कि जीवन भर गाली देने वाले सरजू बाबा नें बम्बई में घर बनवा लिया होता तो क्या मरने के समय उनकी गालियाँ सुनने वाले ये सारे लोग उनके 2bhk फ़्लैट में समा पाते क्या ?
शायद नहीं…!
भयंकर बिजली चमक रही है.. रामचरित मानस की चौपइयाँ अभी भी मन्द-मन्द सुनाती है…प्रादेशिक समाचार में ओले गिरने की संभावना है..
मैनें देखा कि मेरी तस्वीर का फ्रेम बिगड़ गया है…सृजन के नष्ट होने का ये अंतहीन दुःख कैसे कहूँ..समझ नहीं आता।
समझ नहीं आता कि आज जब दुनिया भर के समाचार डरा रहें हैं तो गाँव याद आ रहा है। जब शहर के शहर वीरान हो रहें हैं तो गाँव याद आ रहा है….शहरों में आदमी घरों में कैद हो रहा है तो गाँव ही याद आ रहा है..
लेकिन सोचकर डर जाता हूँ कि गाँव भी डराने लगे तो क्या होगा.. मेरी तस्वीर के फ्रेम पर पत्थर गिर जाएगा तो क्या होगा ?
पता नहीं..
बारिश तेज़ हो गई है और बिजली चमकना भी।
नींद नहीं आ रही है…
आजकल भिखारी का एक गीत रह-रहकर याद आता है..
“सैयां के बहरा से जल्दी बोला द पारबती बम-भोला
कहत भिखारी भयावन लागे हमरा कुतुबपुर के टोला”
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