भारत के महान आदर्शों को नष्ट करती इस नकली बौद्धिकता को जानिए

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वो कोई चैत की बेचैन सी सांझ थी जब मैं एक दरबेनुमा चाय की दुकान में जेनी से मिला था..तब रोज मुझे दसास्वमेध घाट की विश्व प्रसिद्ध गंगा आरती में तबला संगति करनी होती थी.वहीं जेनी को आरती की तस्वीर स्विट्जरलैंड में अपनी मां को भेजनी होती थी.

जेनी अपने देश की तरह खूबसूरत थी. मैं आंख मिलाने तक में शरमाता था..विदेशियों की अंग्रेजी वैसे भी मुझे समझ में नहीं आती.लेकिन जेनी को बात-बात में बिना वजह मुस्कराते,कभी वेदों की चर्चा में मशगूल,कभी संस्कृत महाविद्यालय के लड़कों के साथ उपनिषद की चर्चा में खोये,कभी कत्थक के किसी आमद से उलझते, कभी सितार के रजाखानी गत से बतियाते देखना अच्छा लगता था..बातों-बातों में वो ऐसा खो जाती मानों नदी खो गयी हो सागर में.कभी-कभी हंसने लगती खूब..मानों किसी ने शांत नदी में कोई कंकड़ फेंककर लहरों को छेड़ दिया हो..एकदम .उनमुक्त स्वछंद,बेपरवाह,सी ।

इधर सुबह-सुबह मैं और वो उसी चाय की दुकान पर कुल्हड़ लिए टकराते थे….चन्दन और रोरी के तिलक से चमकते माथे को सिकोड़ते.अपनी लटों को सुलझाते वो तुरन्त झुक कर नमस्ते बोलती. मेरा भी हाथ उसकी निश्छलता नहीं वरन भारतीय आध्यात्म के सम्मान में श्रद्धा से झुक जाता था..फिर वो देर तक मुस्कराती.तब पता चलता कि आदमी को प्रेम की भाषा बिना सुने ही समझ लेनी चाहिए।

कहतें हैं वो शारदीय नवरात्रि के दिन थे जब जेनी अपनी माँ के साथ बनारस घूमने आई थी…रात का दूसरा पहर ढल रहा था..मां शीतला मंदिर के सामने बने एक गोल चबूतरे पर स्वरमण्डल लिए बैठे थे बनारस के दिग्गज स्व. पशुपतिनाथ मिश्र.तबला पर उनके सुपुत्र पंडित कुबेरनाथ मिश्र..और रामापुरा-सोनारपुरा के दर्जनों दिग्गज ।

इनके सामने थे जटा-जुट बढ़ाए कुछ विदेसी,भस्म-भभूत लगाए कुछ साधू…रिकॉर्डर लिये कुछ गायक-कुछ वादक.कुछ संगीत के छात्र.कार्यक्रम शुरु हुआ…पंडित जी ने शुरू किया राग तिलक कामोद ..बड़ा ख्याल फिर छोटा ख्याल.. आलाप,तान,तराना,तिहाई सब कुछ अद्भुत !

कहते हैं उस रात तिलक कामोद को सुनकर शांत गंगा की लहरें भी मचलने लगीं थीं…और सामने अठारह साल की एक चंचल सी इठलाती लड़की आंखे बन्द करके शांत होने लगी थी..भूलने लगी थी सब कुछ..अपनी वो हावर्ड की डिग्री.करोड़ों रुपए की नौकरी.स्वर्ग से सुंदर अपना देश.मां-बाप,प्रेमी सब कुछ.

उस दिन जेनी के चित्त में कुछ ऐसा समाया की तबसे यहीं बनारस की गलियां जेनी का घर है..बनारस के मंदिर उसके दरवाजे..बनारस के घाट उसके छत,जिस छत पर चढ़कर वो उस छत पर चले जाना चाहती है,जिसे पतंजलि ने अपने आष्टांगिक योग में ‘समाधि’ कहा है.

एक और थे,स्कॉटलैंड के जोजो. नाम उनका बड़ा टेढ़ा था..सो बनारस के सर्टिफाइड लँठो ने उनके नाम का शार्टीकरण करते हुए जोजो ‘बवाली’ रख दिया था..जोजो दरभंगा घाट पर आधी रात को एक बांस नुमा लंबा सा वाद्य यंत्र बजाते थे..मैं भी खा-पीकर टहलते हुए वहीं पहुँच जाता था.. जोजो आरती में बजाने के कारण मुझे पहचान गए थे..देखते ही बांसुरी निकाल लेते..और छेड़ देते राग दरबारी.

बड़े दिन बाद पता चला कि हवाई चप्पल और फटे कुर्ते में जिस आदमी को कभी ‘पतंजलि योगप्रदीप’ तो कभी वरदराज कृत ‘लघुसिद्धांतकौमुदी’ लिए देखता हूँ,वो जोजो यहां संस्कृत में रिसर्च स्कॉलर ही नहीं वरन टॉपर छात्र हैं…और वो पाणिनि कृत अस्टाध्यायी के ऊपर अपनी मातृ भाषा जर्मन में एक बड़ी किताब भी लिख रहे हैं।क्योंकि जर्मनी में संस्कृत का बड़ा सम्मान है..यहां तक कि संस्कृत में वहाँ समाचार भी पढ़ा जाता है।

वो 2013 की बात थी…तब मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ.की अरे..एक जर्मन संस्कृत में रिसर्च कर रहा है..तो हाय ! रे भारत की यूपीए सरकार का दुर्भाग्य जिसने केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत को जबरन हटाकर जर्मन पढ़ाना शूरु कर दिया है.और हाय ! रे जर्मनी वालों का सौभाग्य..अब वो जोजो की कृपा से पाणिनि का अष्टाध्यायी पढ़ेंगे.

फिर एक साल पहले अस्सी आ गया. दसास्वमेध छूट गया.छूट गये न जाने कितने जोजो और जेनी..लेकिन दसास्वमेध मुझमें वैसे ही छूट गया जैसे किसी का नइहर छूट जाता है ससुराल आने के बाद.

इधर देखता हूँ संगीत सम्मेलनों में,संस्कृत की लाइब्रेरी में तो अब भी कहीं न कहीं टकरा जाते हैं सैकड़ो जोजो और जेनी…जिन्होंने पाणिनि,पतंजलि,कपिल,कणाद,पिंगल,अभिनव गुप्त,भरत,कालिदास,भास,आर्यभट्ट,वराहमिहिर,,भवभूति जैसे हजारों के लिए अपने देश को छोड़ दिया है.

ध्रुपद,ख्याल,कत्थक,ठुमरी, तबला,सितार,बांसुरी बजाने के के लिए अपने दिन का चैन और रात की नींद भुला दी है..यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान और समाधि के लिए लग्जरी वातानुकूलित कमरों को लात मारकर अपनी दुनिया घाटों पर बसा ली है.

अगले दिन कॉलेज जाता हूँ.तो हैरान होता हूँ.जब गुरु जी पढ़ाते हैं कि ऋग्वेद में वीणा नामक वाद्य यन्त्र को बाँण कहा गया है.. भरत ने नाट्यशास्त्र में मेकअप और साज-सज्जा के प्रकार, नाटक शुरू होने से पहले मंगलाचरण की विधियां.मंच की साज-सज्जा और संवाद के दर्जनों प्रकार पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और अद्भुत सिद्धान्त दिए हैं..जो इस प्रकार हैं..

मैं अवाक..अरे ! ये कौन लोग हैं..इतना क्लिष्ट,इतना सूक्ष्म,इतना वैज्ञानिक,इतना मौलिक आखिर कैसे ?
कैसे सम्भव है.? एक सामान्य आदमी का मनो मस्तिष्क तो पूरे जन्म इसको ठीक से समझने में लगा देगा..

बस एक दिन की बात है गुरु जी से चुहलबाजी में पूछ बैठा..” गुरु जी पाणिनि ने व्याकरण bhu में सिखा था की jnu में ? भरत ने नाटक एनएसडी में पढ़ी थी या गिरीश कर्नाड के असिस्टेंट थे..शारंगदेव ने सँगीत रत्नाकर लिखने से पहले हनी सिंह से शिक्षा लिया था या एकॉन से..पतंजलि को योग बाबा रामदेव ही न सिखा रहे थे ? और सुश्रुत को आयुर्वेद बालकृष्ण जी ? कहीं कालिदास साहित्य पढ़ने मैनेजर  पांडे के यहाँ तो नहीं गए थे ? या आर्यभट्ट ने नासा की नौकरी छोड़कर आर्यभट्टीय लिखा था..कहीं कुंवारे वात्स्यायन ने “फिफ्टी शेड्स आफ़ ग्रे’ पढ़कर कामसूत्र में पीड़ीतक की बात तो नहीं कर दिया है..

गुरु जी.ठठाकर हंसते हैं. “ये बातें तुम्हारे दिमाग मे कहाँ से आई..क्या करोगे जानकर ? साधारणतः विद्यार्थी गणित के सूत्रों की तरह पढ़ते हैं और चले जातें हैं..लेकिन ये शुभ संकेत है..ये प्रश्न उठना ही चाहिए कि आखिर महज पांच सौ हजार दो हजार साल पहले ये कौन लोग थे ? कहाँ सीखा इन्होंने ये सब..कौन था जिन्होंने ये सब बताया इनको..और जिस दिन ये समझ में आ गया.उस दिन समझो बेड़ा पार हो जाएगा.. उस दिन तुम,तुम न रह जाओगे..”

मैं भी मुस्कराता हूँ…तब समझ में आता है कि जोजो और जेनी कितने सौभाग्यशाली हैं..फिर आज के हालात को देखकर रोता हूँ..की आखिर हम अपने इस मूल से कैसे कट गए..हम इनको एकाएक कैसे भूला बैठे.ये देश क्या था..आज क्या है..इस देश की बौद्धिकता इस देश की मेधा जो हिमालय पहाड़ जैसी विराट थी.वो आज कहाँ है ?

मैं खोजता हूँ देश भर के हिंदी डिपार्टमेंट में,सोशल साइंस फैकल्टी में,सेमिनारों में,कहीं तो मिलेगा कोई उस स्तर का व्यक्ति.. उस चैतन्य के शिखर पर खड़ा आदमी.कोई उस स्तर का विद्यार्थी जो खोजता होगा इनको जोजो और जेनी की तरह.उसके भी मन में प्रश्न आते होंगे न ?

लेकिन निराश होता हूँ.. देख रहा प्रोफेसर,लेक्चरर,कवि,लेखक,पत्रकार,बुद्धिजीवी आज ज्ञान साधना छोड़कर एक विचारधारा की संकीर्ण राजनीति साध रहे हैं..और भोले-भाले विद्यार्थी इन प्रोफेसरों का झोला नहीं वरन डर के मारे उनकी विचारधारा का बोझ ढो रहें हैं.क्योंकि इनको डर है कि नम्बर यही बढ़ाएंगे,नौकरी के लिए इंटरव्यू में जुगाड़ यही लगाएंगे..किताब की समीक्षा यही करेंगे.अकादमी पुरस्कार यही देंगे..पत्रकार यही बनाएंगे,बुद्धिजीवी यही घोषित करेंगे..सो बने हुए हैं प्रगतिशील बने हुए हैं उस सेक्युलरिज्म के पुजारी जहां अपनी इस पतंजलि और पाणिनि के विरासत का उपहास है..संस्कृत उनके लिए अछूत शब्द है..हिन्दू शब्द महज गाली है.

कई बार खीज होता है..आखिर ये सब कैसे हुआ…हम अपने को ही कैसे भूला बैठे..मन बेचैन होता है तो कई बार लगता है कि इसमें तो एक साजिश है.एक बौद्धिक साजिश जो बड़े ही सलीके से रची गयी.और जो आज कामयाब भी है..तभी तो एक समूची पीढ़ी तथाकथित आधुनिकता की होड़ में संक्रमित हो चूकी है कि अपनी जड़ से ही उखड़ गई है..इसने अपने डिजायनर आदर्श और विचार गढ़ लिए हैं..।

इसके कारण पुराने हैं..हजारों साल से जमी जड़ों को उखाड़ना आसान नहीं होता..हुआ क्या कि आजादी के बाद वाली सरकार ने अपने बौद्धिक और राजनैतिक संरक्षण के लिए इस देश की समूचे अकादमिक जगत को एक ऐसी विचारधारा को सौंप दिया..जिसको भारत और भारतीयता जैसे शब्द से ही एलर्जी है।

उसने किया क्या कि 70 साल में अपने एजेंडे के लिए भारत की इस महान आध्यात्मिक परम्परा को बड़े ही साजिश के साथ हटाकर एक डिजायनर इतिहास,भूगोल,साहित्य,संस्कृति को खड़ा कर दिया। हम पाणिनि,पतंजलि,आर्यभट्ट,को भूलकर चरित्रहीनों को महान पढ़ रहे हैं..लुटेरों को दयावान,हत्यारों को दयालु..आदर्श हमारे चीन और रूस से आते हैं..प्रेरक क्यूबा और जर्मनी से। ये सब क्या है ?

प्रतिक्रिया स्वरूप इस डिजायनर बौद्धिक नेक्सस के बिरोध में 2014 के बाद एक चेतना उतपन्न हुई भी है तो इसमें अध्ययन,चिंतन,मनन का अभी अभाव है..ये योगी और मोदी से आगे नहीं जा पा रही है।।

इनको भी पता नहीं की हम क्या थे..हमारे पूर्वज कौन थे..कहाँ थी हमारी मेधा…लेकिन इनका भी क्या दोष..

मैं कहता हूं अभी से चेत जाना होगा..हमें सोचना होगा । जोजो और जेनी से सिखना होगा.. ये संकीर्ण वैचारिक पत्थर के बचाव में पत्थर फेंकने से अच्छा है एक दीवाल खड़ी कर ली जाए…जो शायद दुनिया की सबसे मजबूत दीवाल है..लेकिन कब ? जब हम अपने को जानेंगे तब न ..क्या ये शर्म का विषय नहीं है कि हमारी प्राचीन ज्ञान परम्परा पर विदेशी टूट पड़े हैं..और हम पाणिनि,पतंजलि,कपिल,कणाद,पिंगल,अभिनव गुप्त,भरत,को भूला बैठे हैं..

अब लगता है ये सही वक्त.. ये जर्जर मठ और गढ़ टूटने ही चाहिए..मनुष्यता के हित में इस बौद्धिक साम्राज्य की खोखली दीवालें भरभरानी चाहिए..क्योंकि बिना वर्ग संघर्ष के सबको साथ लेकर शांति से चलने की बातें हमने ही की हैं..

ऐसा मैत्री और प्रेम और कहां होगा..जो मन्दिर भी चला जाता है.मजार में चादर भी चढ़ा लेता है..अपने गुरुद्वारे में लंगर तो खाता ही है..क्रिसमस के दिन चर्च में कैंडिल भी जला आता है..वो क्या कभी कट्टर होगा भला…जिसके ऋषि-मुनियों ने “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और वैसुधैव कुटुम्बकम कहा है..जो हजारों सालों से आग में समिधा भी डालता है तो चिल्लाकर कहता है कि “विश्व का कल्याण हो..प्राणियों में सद्भावना हो..’

हमें समूची दुनिया को बताना होगा कि समूचे विश्व की मनुष्यता का कल्याण भारतीयता के कल्याण में निहित में है..मन की शांति,आरोग्य और सन्तोष कहीं है तो और कहीं नहीं,पाणिनि,पतंजलि,कपिल,कणाद,पिंगल,अभिनव गुप्त,भरत की हमारी महान आध्यात्मिक परम्परा में निहित है। हमें इसका गर्व है बार-बार गर्व है।

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