गुरु,तुमने आज हाल-चाल पूछा है। पूछा है, “कहो कैसे हो बम्बइया बाबू ? कइसा लग रहा है बम्बई में,याद नहीं आती न अब बनारस की ?”
अरे! बस करो यार,रुलावोगे क्या मरदे ?
ये तो कुछ ऐसा ही सवाल हुआ कि पुरानी महबूबा चार साल बाद फोन करके पूछे,”मेले लाजा बाबू को मेली याद नहीं आती न ?”
गुरु कसम तिरलोचन महादेव की। जब-जब मरीन ड्राइव पर खड़ा हुआ,तब-तब मिज़ाज का नाधी-धीना हो गया। तुम दिल में बजने लगे गुदई महराज के उस ‘परन’ जैसे..
“कत धिकिट कत गदिगन..”
अब तुम ऐसा सेंटीयाह सवाल करो, तो दिल हमारा गोदौलिया चौराहे की तरह झट से जाम नहीं होगा तो क्या होगा ?
इसलिए बिना ताम-झाम के सुनों,एक मज़ेदार बात बताता हूँ। जानते हो ?
इन बम्बई वालों का बस चले तो ई सब चावल,दाल और सब्जी में भी ‘वड़ा पाव’ डाल दें।
चावल-दाल छोड़ दो। लिट्टी और चोखा में चोखा हटाकर ‘मिसल’ रख दें और मुस्कराते हुए पूछें,”कहो गुरु कैसा लगा..?”
गुरु,तुमही बताओ…साँझ को बीएचयू से क्लास करके लौटते समय उ चचिया की दुकान पर खड़े-खड़े गर्मा गरम लौंगलता और तीखी चटनी के साथ छोला समोसा खाकर अस्सी के ‘काशी टी स्टॉल’ पर अदरक वाली कड़क चाय पीने वाला लड़का कैसे कह दे कि ‘वड़ा पाव’ अच्छा लगा ?
लेकिन गुरु, कहना पड़ता है। इन दस सालों में तुमने ही तो हमें सिखाया कि प्रेम में “जहर-पाव” भी खाया जा सकता है। ये तो “वड़ा-पाव” ही है।
बस गुरु, ई बूझो की महादेव का प्रसाद समझकर प्रेम से खा लेते है।
लेकिन जानते हो, दोस्तों की आंखें मेरे इस “अच्छा लगा” के मर्म को समझ जाती हैं। कभी-कभी तो इतना डर लगता है की कोई ये न कह दे कि तुम तो शाकाहारी हो बे..!
अबे अस्सी-घाट से राजघाट तक को अपनी दुनिया और बलिया वाली हाथी के कान जैसी पुड़ी-बुनिया को अपनी कनिया समझने वाले ?
चावल,दाल फ्राई के साथ थोड़ा सा शुद्ध घी और भिंडी की क्रंची भुजिया में ही आनंदित हो जाने वाले। खीर को अमृत। लिट्टी-चोखा को जादू। और खीचड़ी,दही,अंचार,पापड़ के आविष्कार को नमस्कार करने वाले ? तुम खाए क्या हो बे अपने जीवन में. ?
अबे देहाती-भूच मानुष ? तुम क्या जानो बे ‘वड़ा पाव..!’
अबे,निरहुआ की फिलिम देखने वाले,ये डेविड फिंचर का सिनेमा है।”
गुरु,जानते हो,डरकर चुप-चाप खा लेता हूँ। लेकिन कई बार मन बिजुक जाता है।
ई बुझ लो कि इन्फिरियारटी काम्प्लेकसवा घेर लेता है। लगता है,”हं होगा, ज़रूर अच्छा होगा.. अब हमें अच्छा नहीं लग रहा तो कोई न कोई दोष तो हमारे अंदर ही होगा।”
गुरु,कैसे कह दें कि तुमने दस साल में हमारी जीभ को बिगाड़ दिया है। अब बताओ भला,जो दस साल बनारस रह गया।
जिसने सुबह उठकर कड़ाही में किसी कुशल नृत्यांगना सी कथक करती गोल-गोल प्यारी-प्यारी कचौड़ीयों को चख लिया।
जिसने कचौड़ी के साथ आलू-गोभी,मटर,टमाटर और पनीर की रसदार सब्ज़ियों के साथ,कुरकुरी जलेबी और दही खा ली।
जिसने साँझ को मारवाड़ी अस्पताल के सामने वाली गली में दस रूपया में मिल रही खट्टी-मीठी चटनी और शीशे की गोली जैसी नन्हीं-नहीं कचौड़ीयों में चने का छोला डालकर खा लिया।
जिसने सकौड़ा,पकौड़ा,टिकरी, ख़ुरमा,मखनिया उत्तपम,रबड़ी, मलइयो,लस्सी और ठंडई के बाद ‘काशी चाट भंडार’ पर अमृत समान ‘टमाटर चाट’ खा लिया!
उसे ‘वड़ा पाव’ कैसे सही लगेगा गुरु ?
लेकिन का करोगे.. मन मारकर “सही लगा” कहना पड़ता है।
सोचता हूँ,ये भी तो अपना देश है,अपने लोग हैं।
स्थानीयता का सम्मान भी कोई चीज है। शायद खान-पान की यही विविधता तो भारत को भारत बनाती है।
अच्छा,छोड़ो.. एक दिन अख़बार में पढ़े कि गोदौलिया चौराहे पर चार मंजिला मल्टी स्टोरी पार्किंग बन गया गुरु..!
गुरु,उ बिल्डिंग का फट्टो देखकर आँख में ही नहीं,दिल में हमारे खुशी का लहर लेस दिया। इसलिए नहीं कि मल्टीस्टोरी पार्किंग बिल्डिंग बन गया।
इसलिए कि बनारस की आत्मा पर सैकड़ों साल से कलंक जैसा गन्ध मचा रहा कूड़ा घरवा हमेशा के लिए हट गया।
बाकी हम देखे,कोरोना में तुमने कितना कष्ट झेला है।
सच कहूं गुरु तो बनारस के हालात देखकर तो रोना ही आता था। समझ में नहीं आता था कि बूजरो के करोनवा कहाँ से आकर पूरी दुनिया को तबाह कर दिया है।
लेकिन जाने दो,निपट गया है अब,फिर तुम तो मस्त मौला शहर हो। धरती पर हर्ष-विषाद,जीवन-मृत्यु और रंग-भंग के इकलौते संतुलित राग.. !
तुम्हारा कोई क्या बिगड़ेगा। अब तो तुमसे दूर रहकर मुझे यही एहसास होता है कि जिस दिन बनारस समझ में आ जाता है। उसी दिन छूट जाता है।
बस-बस,यही मेरे साथ हुआ है। समझ में आते ही छूट गया है।
लेकिन गुरु, तुम तो दिल में हो,सांस बनकर धड़क रहे हो।
आऊंगा अक्टूबर में…अभी तो पंचगंगा घाट पर कवि जगन्नाथ की ‘गंगा लहरी’ का पाठ करके गंगा स्नान करना बाकी है।
जानते हो एक खूबसूरत बात ?
जब क्षत्रपति शिवाजी महाराज जब मुगलों के चंगुल से भागे थे, तब बनारस जाकर पंचगंगा घाट पर ही स्नान किये थे।
वो पंचगंगा घाट,काशी और महाराष्ट्र का मिलन बिंदु है।
जिस दिन बम्बई से आया,उसी दिन जाऊंगा।
तब तक,हर-हर महादेव।
तुम्हारा
अतुल कुमार राय
सांता क्रूज ईस्ट
मुम्बई