जब फागुन कपार पर सवार है और देश-दुनिया में वेलेंटाइन का खुमार..बुढ्ढों में इश्क और जवानों में प्रेम का बुखार है,ठीक उसी समय हमारी काशी सज-संवरकर तैयार है.लेकिन भाई मेरे- उसका कारण वेलेंटाइन का त्यौहार कक्तई नहीं है.
बकौल लहरी गुरु- “ई सब तो अंग्रेज-अंग्रेजीनों के चोंचले हैं”..जिनके पास ठीक से कपड़ा पहनने का टाइम नहीं रहता है.उ ससुरा पीआर-मोहब्बत करने के लिए टाइम नहीं निकालेंगे तो क्या करेंगे.अरे !इनका बस चले तो हर चीज को बाजार में खुल्ला करके रख दें, ई तो ससुरा पीयारे है.
लेकिन गुरु वेलेंटाइन की ऐसी की तैसी-
अपनी काशी के असली वेलेंटाइन तो बाबा भूतभावन हैं..जिनसे मिलने के लिये न टेडी डे की टें-टें करनी है। न ही हग डे वाली हाहाकार ..न ही जरूरत है किस डे वाली कुलबुलाहट की,न ही करनी है चॉकलेट डे की चिंता।
इहाँ तो बस दिल पर हाथ रखकर एक प्रॉमिस करना है..और रोज डे मानकर गुलाब का फूल नहीं,एक भांग का फूल,थोड़ा सा धतूरा और थोड़ा सा जल लेके मस्ती में गोड़ हिलाते चल देना है..फिर शिव जी का आँख बन्द करके ध्यान करना है..और जल ढार के प्रपोज कर देना है..
लेकिन वइसे नहीं गुरु..सभ्यता से…बोले तो अइसे..
“नमः पार्वती पतये हरs हरs महादेव”
समझे ?
नहीं समझे तो बता दें कि ई वाला दिन काशी का ऐसा दिन होता है जिसका इंतजार जनता पूरे एक साल करती है.वो दिन होता है महाशिवरात्रि का दिन,
काशी में इसी दिन बाबा की झांकी निकलती है..और नाना प्रकार के मिष्ठान बनतें हैं..कहीं ठंडई छनती है तो कहीं भांग..कहीं डीजे निकलता है तो कहीं ठेले पर समूचा कैलाश.फिर तो उस दिव्य झाँकी को देखकर रोम-रोम यही कहता है..तन शंकर मन शंकर. काशी का कण कण शंकर..
तो साहेब पता चला है कि काशी सज संवरकर तैयार हो रही है..बाबा विश्वनाथ तो सज ही रहें हैं..लेकिन कम ही लोगों को जानकारी है कि काशी में सिर्फ बाबा विश्वनाथ ही नहीं सज रहे हैं..यहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं जिन्हें बारात के पहले खूब सजाया जाता है।
अब आप पूछेंगे कइसे ?
इहाँ तो द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक बाबा विश्वनाथ हैं.ग्यारह कहाँ से आ गए जी ?
तो भाई रुकिये..इहाँ छित्तनपुर कोयला बाजार में ओंकारेश्वर महादेव हैं,तो सिगरा में मल्लिकार्जुन महादेव,ललिता घाट पर भीमाशंकर हैं..तो कमच्छा पर घृनेश्वर महादेव,
देवघर जाने की जरूरत नहीं,भइया काशी में बाबा बैजनाथ भी हैं.और उस मोहल्ले को बैजनत्था मोहल्ला भी कहा जाता है। मान मन्दिर घाट के ऊपर वाली गली में रामेश्वर नाथ..और केदार घाट में गौरी केदारेश्वर। वहीं बांसफाटक में हैं त्र्यंबकेश्वर महादेब।
बुझ गए.इसलिए इहाँ के बुजुर्गों ने कहा..
“चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार
काशी कबहुँ न छोड़िए विश्वनाथ दरबार”
तो भाई काशी के चिर वेलेंटाइन बाबा भूतभावन के विवाह की धूम है..डीजे से बोल दिया गया है..”देख भाय जेनरेटर में डेढ़ सौ लीटर तेल डालके पहले दू घण्टा चलाए के रखले रहिये..”
“बारात के बीचा मा चु-चा भइल,एयर लिहलेस लप्प से पीठी पर लागी दू गोजी..तोहार देह से एयर निकस जाई “
इधर पता चला है बारात में घोड़े,हाथी,ऊंट,रथ,के साथ बाराती भी कम तैयार नहीं हैं…बारातियों मे आस्था की उमंग हिलोरें लेने लगी हैं.फिजाओं में भांग घुल गया है,जिसे बस महसूस किया जा सकता है..बताया नहीं जा सकता..
उदाहरण मौजूद है..
आज सोनारपुरा में मंगल गुरु की मेहरारु अपने नइहर बांसफाटक बारात देखने जा रही हैं.अलता से गोड़ रंग रही हैं.बड़की बिंदी लगा रही हैं..ठठेरी बाज़ार वाली चूड़ी और पियरी पेहेन के मानेंगी..
मुंह में पान लेके गुरु समझा रहे हैं.
“काहें नाई मानत हौ रहुला कs अम्मा”?
रहुला कs अम्मा उर्फ मंगल बो भौजी काहें माने जाएं..जब चार साल की थीं तभी से शिव जी की बारात देखने जाती हैं.बाबा की किरपा हुई कि घर से डेढ़ किलोमीटर दूर ही बियाह हो गया..भौजी को लगा शिव जी ने मंशा पूरन कर दिया..पहले विश्वनाथ जी में जल चढ़ाती थीं अब तिलभांडेश्वर महादेव में चढ़ाती हैं..लेकिन जब भी बारात आता है..भौजी अपनी बचपन की दुनिया में जाने के लिए मचल उठती हैं..और बारात निकलने के दो दिन पहले ही चल देती हैं अपने नइहर.तैयारी होने लगती है बारात देखने की.देखनिहार लोगों से वर्षों बाद मिलने की।
मंगल भी जाते हैं..अपनी ससुराल,ये देखने के लिए की बाबा भांग वाले कैसे अपनी ससुराल जा रहें हैं।
फिर वहाँ जाकर पता चलता है कि अरे! यहां तो बारात देखने के लिए सिर्फ हम ही नहीं यहां लोग आए हैं. इंग्लैंड से अमरीका से ऑस्ट्रेलिया और केनबरा से..सबके हाथ में मोबाइल और बड़का-बड़का कैमरा है..सब मानों इस अलौकिक पल को कैद कर लेना चाहते हों।
जहां दुनिया भर के लोग बारात में जाने के लिए नया साड़ी-कपड़ा खरीदते हैं,खूब झमकऊआ मेकअप मारके जाते हैं,वहां गुरु काशी में जस्ट उल्टा हो गया है,इहाँ तो बारात देखने के लिए नवा-नवा कपड़ा खरीदा गया है..मेकअप किया गया है..
फिर तो मंगल बो भौजी हों या अमरीका जापान के डेजी रोजी विलियम्स.बारात का इंतजार होने लगता है।साँझ को सब काम-धाम छोड़कर जनता रोड पर..अरे! गुरु अभी ना आयल भाय..गुरु कहाँ रह गयल बारात..अबे त निकसत हौ. कबले आई रजा..?
उधर बारात चल देती है..लेकिन एक जगह से नहीं.ये शिव जी की बारात है.सीधे तीन जगह से निकलती है।
पहली बारात सुबह 11 बजे तिलभांडेश्वर महादेव से निकलकर जाती है जंगमबाड़ी होते हुए दसास्वमेध घाट,फिर यहां से लौटकर केदार घाट.
दूसरी बारात शाम को लक्सा के लालकुटिया से निकलती है और गोदौलिया होकर चितरंजन पार्क जाती है.फिर बाबा अपने अड़भंगियों के साथ मस्ती करते लालकुटिया के पास लौटते हैं।
तीसरी बारात मृत्युंजय मन्दिर से चौक होते हुए चित्तरंजन पार्क जाती है..फिर रात को आठ बजे कीनाराम बाबा स्थली से अस्सी घाट व दिन में ही नाटी इमली से चितरंजन पार्क के लिए एक और बारात निकलती है।
इन तीनों बारात में दूल्हा एक ही होता है..और बराती भी..यानी वही नाना प्रकार के भूत, प्रेत,पिसाच,मदारी,सँपेरे, औघड़। साथ ही गाने-बजाने भजन,कीर्तन और बेहिसाब नांचने वालों की टोली,गाजा-बाजा डीजे वालों की होली..
ये सब नांचते हैं.कूदते हैं..कभी सरकार की किसी योजना का मजाक उड़ाते हैं तो कभी किसी नेता का.कभी किसी झाँकी में सामाजिक सन्देश होता है तो कभी समाज को जोड़ने की एक कोशिश..
इस तरह बारात में लगातार चार घण्टा नांचने के बाद जब देह का लासा निकल जाता है.तब याद आता है की अरे! बाबा का असली प्रसाद तो अभी बाकी ही रह गया..प्रसाद बोले तो
*भांग और ठंडई *
इसके बिना क्या काशी क्या बारात। यहां के बुजुर्गों ने कहा है कि काशी में स्नान,ध्यान,जलपान और पान के बाद जो काम बच जाता है..उसे भांग कहते हैं..जिसके कारण बनारस का शरीफ और जगहों के लंठ से दो किलो ज्यादा लंठ होता है।

अस्सी का गुरुओं और दसास्वमेध के घण्टालों का मानना है कि बारात में नाचने के बाद भांग जरूर लेना चाहिए.. जो आदमी कहता है कि भांग से नशा होता है वो महा बौचट आदमी है…अरे! ये भी कोई नशा है.देखो तो ससुरा अमरीका वाला पी रहा..जापान वाला पी रहा..और इंग्लैंड वाला भोजपुरी और भोजपुरी वाला पीकर अंग्रेजी बोल रहा है।
फिर तो गुरु थके-मांदे बरातियों की भांग छनाई शुरु हो जाती है..और कहते हैं इहाँ तरह-तरह से भांग छाना जाता है.कोई बराती गोली बनाकर छानता है..तो कोई बराती दूध के साथ लेना पसन्द करता है..किसी बरातीको फल के जूस के साथ लेना पसंद है.तो कोई बराती कसेरू नामक फल के साथ लेता है..और कसेरू के साथ ले लेने पर मान लिया जाता है की “ई आदमी जवन है भाय. ई ससुरा बड़का रईस हौ”
भांग लेने वाले बराती के बाद जो बच जाते हैं कुछ शरीफ लोग..उनके लिए स्पेशल ठंडई की व्यवस्था रहती है.
वो बनारसी ठंडई जो मिश्राम्बु नामक ब्रांड से आज देश दुनिया में फेमस हो चुकी है कि इसकी मांग इतनी ज्यादा हो जाती है कि लोग जाड़ा,गरमी बरसात पीते हैं..
तो भाय बचे हुए शरीफ बारातीयों के लिए ठंडई का दौर शुरू हो जाता है..
जिसमें आमतौर पर तरबूजा,ककड़ी,खीरा,का बीज,गुलकंद,बादाम,काजू,काली मिर्च,सौंफ,पिस्ता, और तब गुरु उस पर से एकदम शुद्ध दूध डाला जाता है. और उसके बाद जब मिजाज में घोलकर गटका जाता है उसका जबाब नहीं होता है.
भांग को ठंडई में मिलाया भी जा सकता है..जिसके लिए आपको दुकानदार से कहना पड़ेगा ‘भाय उ वाला”
दुकानदार समझ जाएगा..और जब एक गिलास देगा तब मन एकदम टनमन हो जाएगा।
इस तरह बारात, भांग और ठंडई की यात्रा के साथ बाबा की बारात विश्राम लेती है अगले वर्ष के लिए।
सबके मन में फागुन का हुलास छा जाता है.और इंतजार होने लगता है बुढ़वा मंगल का।
हाँ- ये कहना गलत न होगा कि दुनिया भले सांस्कृतिक प्रदूषण से तबाह हो रही लेकिन काशी ने स्वयं को बचाकर रखा है..अपनी जड़ों को अपनी खूबियों और अपनी खामियों को भी..क्योंकि काशी की खामियों का महत्व इसकी खूबियों से कत्तई कम नहीं है।
यही कारण है कि शिव की बारात एकता में विविधता व विविधता में एकता की एक मात्र स्तम्भ हैं.और काशी उसका टीला जिसने उसे सम्भाले रखा है.बड़े करीने से।