‘को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ’ ( कुम्भ यात्रा संस्मरण )

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ट्रेन खुली तो हल्की बारिश हो गई,अचानक ठंड बढ़ गई। घड़ी में देख रहा रात दो बजने को हैं। ट्रेन में बैठे आधे लोग ऊंघ रहें हैं,आधे लोग टकटकी लगाए पूछ लेते हैं ‘कौन स्टेशन बबुआ ?’

मैं मोबाइल में देखकर बता देता हूँ.. ‘झूसी आने वाला है।’

अचानक ट्रेन में हलचल तेज हो जाती है। किसी ने झोला सम्भाल लिया,किसी ने गठरी,किसी ने डंडा,कोई कमंडल खोज रहा है। तब तक ट्रेन रुक जाती है।

क्या मिल जाएगा..एक डुबकी लगाकर। कौन सा अमृत झर जाएगा ? “

लेकिन बाबा का उत्साह तो मुझसे कहीं ज्यादा है। मेरे इस तथाकथित तार्किक मन को जरा सी शर्म आती है।

हम दो लोग उनके पीछे-पीछे चल पड़तें हैं। पीठ पर एक-एक झोला है और मन में कितना भारी कौतुक है कि कह नहीं सकते.

जीवन की आपाधापी में आज एक महीने से सोच रहे..आज कुम्भ जाएंगे,कल जाएंगे..खूब घूमेंगे..कल कसालकर जी का गायन सुनेंगे..रतिकांत महापात्र जी का नृत्य देखेंगे। ये फ़ोटो खीचेंगे, वो लिखेंगे.

लेकिन बार-बार दिन बदल जाता था। सहसा एक दिन मन नें खुद से ही विद्रोह कर दिया और संकल्प शक्ति न जानें कहाँ से जाग्रत हो गई कि कुछ भी हो जाए..बस चलना है तो चलना है।

आज इस अर्धनिशा में सब साकार है । विश्वास नहीं होता कि पीली रोशनी से नहाए प्रयागराज कुम्भ आंखों के सामने है।

ऊपर बादलों से आच्छादित आकाश..बारिश की बूंदें, जो भीगा कम,हवा के साथ मिलकर इस कदर डरा रहीं हैं कि ठंड लगने लगी है।

लेकिन इस आधी रात लोगों का उत्साह देखकर मन में नई तरंगे हिलोरें लेने लगतीं हैं।

मानों कुछ ही वक्त में हम मेले के करीब होंगे.. और सामने एक स्वर्णमयी आभा से दीप्त कोई तम्बूओं का शहर होगा। लोग उसमें सो रहे होंगे कि जग रहे होंगे क्या पता ?.जो होगा सब सामने ही होगा..

इस उधेड़बुन में एक-डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद कुंभ के पहले भव्य प्रवेश द्वार से मुलाकात होती है। देख रहा सीआरपीएफ के जवान ड्यूटी पर मुस्तैद हैं।

पुलिस गस्त कर रही। कुछ सफाई वाले अभी भी सफाई कर रहे। मैं सोचता हूँ ‘आधी रात को क्या पड़ी है साफ-सफाई की..बेचारे भर दिन मेहनत करतें हैं इस टाइम तो इनको सोने देना चाहिए।’ लेकिन नहीं,उनका श्रम जारी है..

थोड़ा भीतर आते ही मन की दशा अजीब हो जाती है। एकदम सन्नाटा है। इस सन्नाटे में भी एक अजीब सा शोर है। टिप-टिप बूंदे अब भी बरस रहीं हैं।

बाप रे! इतने बड़े-बड़े पंडाल..इधर काश्मीर, इधर हरियाणा।ये रहा सामने कर्नाटक..ये गोवा रहा..क्या खालसा लगा है। किसिम-किसिम के तोरण द्वार, नाना प्रकार के प्रवेश द्वार..सब एक से बढ़कर एक। लेकिन आश्चर्य ये कि गंदगी का कहीं नमो निशान नहीं।

हर जगह पीने का जल..कूड़ेदान..साइन बोर्ड..कितने करीने से सजा सब कुछ…भव्य कुंभ और दिव्य कुम्भ यही है ? क्या जहाँ हम आ गए..

फिर सोचता हूँ कि ये मेला नहीं,ये तो विविधताओं से युक्त एक भारत है जो दिन भर की थकान के बाद एक साथ सो रहा है।

लीजिये ठंड बढ़ती जा रही है और पैरों में थकान भी। तब एहसास होता है कि मेले की चौहद्दी नापने के चक्कर में हमनें पैरों के साथ अन्याय कर दिया है। अगर तत्काल प्रभाव से इनको आराम न दिया जाए तो सुबह बड़ी दिक्कतें होंगी

लेकिन बड़ी समस्या है कि सोया कहाँ जाए..मौसम भी बारिश वाला हो गया..हवा सनसनाती है तो सहसा शरीर काँपनें लगता है। अगर सोया न भी जाए तो ठीक से बैठकर कहीं चाय ही पी लिया जाए।

मैं सोचता हूँ कि मैं भी क्या अद्भुत किस्म का मूर्ख हूँ।

कुछ दिन पहले एक मित्र कह रहे थे कि ‘आइयेगा हम टेंट एक बुक कर देंगे’..हमने जब टेंट की तस्वीरें देखी तो वो किसी तारांकित होटल जैसी थीं। उसी दिन संकल्प लिया की नहीं..बिना बताए इस वीआईपी व्यवस्था से दूर होकर एकदम साधारण और निकम्मे आदमी की तरह घूमना है…और इस का आनंद लेना है।

लेकिन मौसम,थकान और नींद के हाहाकारी संगम में उठते तूफान को देखकर अपने इस टुच्चे फैसले पर तरस आ रही थी।

मन से आवाज आ रही थी..’क्या अतुल बाबू जबाब दे दिये.. दो किलोमीटर पैदल चलकर.. हार गए। यहाँ अस्सी-पचासी साल के लोग अभी से संगम की तरफ भीगते चले जा रहें हैं..और आप अभी जवान..

फिर भी एक तर्क पैदा होता है कि रात तो हमनें देख लिया..लेकिन रात का कुम्भ देखते रह गए तो दिन का न देख पाएंगे।

दो-चार लोगों से पूछने पर पता चलता है कि हम लोगों ने ज्यादा देर कर दिया है। लेटने की व्यवस्था यहाँ से कुछ दूरी पर है। पन्द्रह-बीस मिनट चलना होगा।

इस जानकारी के बाद थकान और बढ़ जाती है। लेकिन जहाँ उम्मीदें जबाब दे जातीं हैं वहाँ कभी-कभी रास्ता भी दिख जाता है।

सामने देख रहा जम्मू-काश्मीर सोया है। नौसेरा नगर खालसा। महामण्डलेश्वर संतोष दास जी महाराज..

बाबा की सफारी दरवाजे पर खड़ी है। लेकिन बाबा इतने संतोषी हैं कि उन्होंने अपने दरबार में दरवाजा नहीं लगाया है।

हम चुपके से भीतर दाखिल हो जातें हैं। भीतर दरी है..तकिया-रजाई और बिछौना भी। दस-बीस लोग जहाँ-तहाँ सो रहें हैं। खराटे की आवाजें गूँज रहीं हैं।

हम दो जन भी खाली जगह देखकर लेट जातें हैं। इस यादगार नींद से पूर्व की एक सेल्फी होती है और अपने हालात पर थोड़ी सी आश्चर्य मिश्रित हँसी भी…

कब नींद आ जाती है समझ नहीं आता।

सुबह नींद खुलते ही एक अद्भुत माहौल से सामना होता है । हवा अब और तेज बह रही है। बारिश और तेज हो रही है। लाउडस्पीकर से और तेज मंत्रोच्चारण जारी है। कहीं कीर्तन की आवाजें आ रहीं हैं तो कहीं यज्ञ-हवन की।

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मैं और तेज आश्चर्य में पड़ जाता हूँ कि रात वाले कुंभ से दिन वाला कुंभ कितना अलग है ? और मौसम क्या हो रहा है। एक तसवीर भी ठीक से नहीं ले सकते। स्नान क्या खाक करेंगे ?

क्या भगवान ? यही करना था हमारे साथ…

लेकिन मेरे भीतर सोया वामपंथी जाग्रत हो जाता है। और सहसा दिल से आवाज आती है..

‘हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के ख़िलाफ़।’

फिर तो चाय पीते और उदास मौसम से लड़ते संगम की तरफ कूँच होता है।

अब एक अद्भुत नज़ारा हमारे सामने है।

सूरज बादलों के साथ लुका-छिपी खेल रहा। न जाने किस देश से आए श्वेत पक्षी कलरव करते एक साथ उठतें हैं,एक साथ बैठतें हैं। मानों अभी सर पर आकर बैठ जाएंगे या अभी नाराज होकर साइबेरिया चले जाएंगे। इनका नर्तन मन को सहज ही बांध लेता है।

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ये शायद कुंभ का चौदहवाँ अखाड़ा है। अखिल भारतीय पक्षी अखाड़ा,जो दिन भर शाही स्नान करता है।

देख रहा नहा कर लौट रही कमला चाची..नहाने जा रहे बब्बन बाबा..क्या उत्साह है, क्या उमंग है।

सोच रहा इनके सर पर रखे झोले में क्या होगा…लुग्गा होगा,कपड़ा होगा..चार पूड़ी,आलू की भुजिया और आम का अँचार,एक बोतल पानी होगा..यही न ? ।

लेकिन नहीं,इससे ज्यादा बड़ी आस्था होगी..जिस आस्था ने दुनिया के इस सबसे बड़े धार्मिक उत्सव को वैश्विक उत्सव बनाया है। इस आस्था के झोले में ढेर सारी मिन्नतें हैं जो गंगा,यमुना,सरस्वती मइया के अदृश्य कानों में कहनीं हैं।

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तभी तो मिलों पैदल चलने के बाद भी इनकी चाल में गजब का आत्मविविश्वास है। यही देखकर लगता है कि मेले का झोला सिर्फ झोला नहीं ये तो आस्था का झोला है..जिसे बड़े ही सामान्य से दिखने वाले लोगों ने बड़े ही असामान्य तरीके से ढोया है।

लगता है सामने भारत है हमारा..समूचा भारत.. विविधता में बंधा,एकात्मकता में पिरोया,आस्था में नहाया..न जाने कितने आए,कितने गए लेकिन ये सदियों से धीरे-धीरे कमला,विमला के झोले में रेंगता आ रहा..चलता आ रहा और चलता चला जाएगा।

अब संगम करीब है। शोर बढ़ गया है। समझ नहीं आता क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए।

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स्नान जारी है और हल्ला भी। लेकिन कहीं हड़बड़ी नज़र नहीं आती…

बहुत हल्का सा सूरज दस्तक देता है..मानों गहरी नींद से उसे कोई जबरस्ती जगा रहा है। देखते ही देखते स्वर्ण रश्मियां जल पर अपार सौंदर्य बिखेर देती हैं। पानी के सौंदर्य में एकाएक वृद्धि हो जाती है। हाथ जुड़ जातें हैं..मुँह से निकल जाता है… अहा!

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सहसा तुलसी याद आने लगतें हैं।

“को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा “

जब यहाँ आकर सुख के सागर रघुबर सुख पातें हैं तो हमारी क्या बिसात ?

तभी तो लोग बड़े मनोयोग से नहा रहे। नहाने वाले के पीछे-पीछे सफाई वाले और जल पुलिस। मानों एक ने कसम खा लिया हो कि एक फूल और माला संगम जी में नहीं बहेगा दूसरे ने ये कि किसी को धक्का-मुक्की नहीं करनें देना है ।

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इसी में हमारा स्न्नान होता है। संगम के जल टकराते ही मन की नकारात्मक ऊर्जाएं जानें लगती हैं…देख रहा एक उत्फुल्लता ने घेर लिया। अवचेतन में छिपी उदासी धूल रही। शीतल जल कलुषित भावनाओं को स्वच्छ कर रहा। माथे पर चंदन लग गया और तिलक भी।

लेकिन आध्यात्मिक चिंतन पर विराम लग गया। क्योंकि बारिश जोर की शुरू हो गई। हम बचते हैं जैसे-तैसे..

थोड़ी देर में मौसम साफ होता है। हम वहाँ पहुंच जातें हैं,जहाँ सारे अखाड़े एक साथ सजे हैं।

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मुँह से निकल जाता है..अरे! रात वाला तो ट्रेलर था.. फिल्म तो यहाँ है…क्या भव्य तोरण द्वार बनें हैं। मानों कोई राजा का महल।

ये रहा जूना अखाड़ा का प्रवेश द्वार..

यहाँ नागा बाबा भस्मीभूत लगाए अभी हवन कर रहें हैं। एक जन चिलम निकाल रहें हैं। बम-बम,दम-दम का माहौल जारी है।

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अजीब सी उत्सुकता से हम देखते चलें जातें हैं। इनको और इनकी जीवन शैली को। भौतिकता के त्याग का ये उत्सव भी कितना अजीब है न ? मन सोचता है बार-बार…पांव चलते जाते हैं,आँखे देखती जातीं हैं..आश्चर्य से चौड़ी होती जातीं हैं।

‘को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ’ ( कुम्भ यात्रा संस्मरण )

मानों एक नई दुनिया से आज साक्षात्कार हो रहा हो। जहाँ देखो वहाँ…हजारों साधु। कहीं भजन हो रहा,कहीं प्रवचन देखने के बाद एहसास होता है कि एक दिन या दो दिन में कुम्भ नहाया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता…

आगे और अखाड़े हैं..कर्नाटक से लेकर तमिलनाडु और केरल तक….सबके प्रवेश द्वार पर उनके राज्य और संस्कृति की झलक मिल जाती है।

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आगे बढ़ते संजोग से दो मित्र टकरा जातें हैं। एक जन कथा वाचक हैं..बड़े-बड़े कार्यक्रम करतें हैं। आस्था-संस्कार पर आतें हैं…’अरे! अतुल भाई आप ? पाँच साल बाद यूँ मिल जाएंगे..ऐसे मिल जाएंगे पता न था..

वो अपने पंडाल में ले जातें हैं..जहाँ उनकी भागवत कथा चल रही…भव्य पंडाल..सबसे परिचय करातें हैं। चाय-पानी नास्ता होता है।

विदा के बाद..अब लगता है..पैर जबाब दे चुका..शाम को वाराणसी न पहुँचा गया तो बड़ी आफ़त होगी।

ट्रेन के सिटी बजाते ही कुम्भ छूट जाता है।

लेकिन स्मृतियों के किन्हीं कोटरों में ये अलौकिक अनुभव दर्ज हो जाता है कि हम भी कभी रात को दो बजे कुंभ पहुंचे थे।

और जब-जब याद आएगा तब-तब चित्त एक नई ऊर्जा से तरंगित हो उठेगा।

लेकिन भाइयों-बहनों – बात ये है कि. कुंभ 2019 – चौबीस करोड़ लोगों में से,मेरी एक छोटी सी स्मृति के लिए नहीं जाना जाएगा। न ही कुछ गिनीज बुक के कुछ रिकार्ड्स की बदौलत दुनिया में पहचाना जाएगा।

ये तो जाना जाएगा..अपने उन क्रांतिकारी और प्रगतिशील फैसलों के लिए जिसने इस धर्म को सदा सहिष्णु,उदार बनाया है।

ये जाना जाएगा कि कैसे समाज में सदा से बहिष्कृत,निंदित और उत्पीड़ित,उपेक्षित किन्नर समाज को हिन्दूओं की संत परम्परा नें अपने साथ न सिर्फ मिलाया,बल्कि समानांतर अखाड़े का दर्जा और सम्मान देकर तुलसी की उन पंक्तियों ‘देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहीं सकल त्रिवेणी को चरितार्थ किया।

और जब इतिहास की कुछ अभूतपूर्व समाजिक घटनाओं का जिक्र होगा तो ये भी बताया जाएगा कि भारत देश के सबसे ऊपर बैठे व्यक्ति नें भारतीय समाज के सबसे नीचे बैठे सफाई कर्मियों के पाँव पखारे थे..और अपनी जमा पूंजी का इक्कीस लाख रुपए इनको दान भी कर दिया था।

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और इन पन्द्रह-बीस हजार सफाई कर्मियों नें एक साथ झाड़ू लगाकर गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में अपना नाम जब दर्ज करा दिया था वहीं संत कहाँ इनको सम्मान देने से पीछे हटने वाले थे।

अखिल भारतीय गंगा महासभा नें अपना स्नान,इन्हीं सफाई कर्मियों के साथ करके इनका अभिनंदन किया था।

पहली बार 122 देशों के प्रतिनिधि न सिर्फ यहाँ आए थे। बल्कि उनके प्रमुख मीडिया समूहों में इसकी रिपोर्टिंग भी छापी थी.. और ब्राडिंग का असर कुछ इस कदर हुआ कि देखते ही देखते इंडियन टूरिज्म सेक्टर में भूचाल आ गया और इतिहास में पहली बार बाइस लाख से ज्यादा विदेशीयों नें कुंभ में स्नान किया।

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दर्जनों देशों के नागरिकों नें रामलीला खेली, लाखों कलाकरों ने अपनी प्रस्तुतियाँ दीं। और धार्मिक प्रभाव से इतर चाय वाले से लेकर ठेले वाले और होटल वाले से लेकर रेहड़ी वाले तक मालामाल हुए।

लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात ये की.. एकाकीपन के इस दौर में जब अंधी भौतिकता हमें दौड़ा रही है। तब पचास दिन हमनें सामूहिकता,विविधता और सामंजस्य की त्रिवेणी को न सिर्फ जीवंत किया..बल्कि दुनिया को बताया कि भारतीयता के कल्याण में ही मनुष्यता का कल्याण निहित है।

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देख रहा झूसी से ट्रेन छूट गई है.हम भी कहीं वहीं छूट गए हैं। और आवाजें अब भी गूँज वहीं रहीं हैं..

धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
विश्व का कल्याण हो
प्राणियों में सद्भावना हो…

© – atulkumarrai.com
Photos – Atul Kumar Rai |

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