सुबह के सात बजे थे,भीड़ का बढ़ना जारी था, शिवालयों से हर-हर महादेव की ध्वनि उठ रही थी। गलियों से निकलता भक्तों का रेला,तुलसी,बेल पत्र और जल लेकर दौड़ रहा था।
इधर विदेशी इस लम्हे को कैमरे में कैद करने के लिए बेकरार हो रहे थे। एक लँठ साँड़ से बचने के चक्कर में कोरियाई पर्यटकों का एक समूह तितर-बितर हो चुका था।
तभी गुजरात से आए रमेश भाई पटेल और भभुआ से आए बब्बन बाबू के नथुनों में कहीं से मसालों की सोंधी महक परपराने लगी।
देखते ही देखते गुलाब जल मिश्रीत जलेबी और करारी कचौड़ी की सुगंध ने सात बजे ही उनके स्वाद ग्रन्थियों को व्याकुल कर दिया।
सामने नज़र पड़ी…देखा..एक अधेड़ दुकान वाला एक साधारण सी गुमटी की दुकान में वहां बैठा है,जहां बैठना तो दूर ठीक से खड़े होने तक कि जगह नही है। कड़ाही चढ़ी है। एक हेल्पर दूसरे चूल्हे पर मसाले को मसल-मसल के उसका तेल निकाल रहा है…
इधर जनता हाथ में दोना लेकर उस कोना की तलाश में है..जहां आराम से बैठकर कचौड़ी-जलेबी के साथ मिज़ाज बनाया जा सके। तब तक गोभी की कतरन में पनीर की कतरन डालकर बनाई गई सब्जी से लाल मिर्चे की रसधार टपकती सब्जी और साथ में उड़द वाली करारी कचौड़ी हाज़िर है।
कड़ाही के बगल में रखे जलेबा को देखकर लगता है कि ई जरूर किसी जन्म में जलेबी का पति होगा। साइज देखकर ही पेट खुद मुंह से सवाल पूछ देता है कि दो इतना बड़ा जलेबा कोई कैसे खा सकता है भाई?
ई मोटी-मोटी गिरहों के रेशे-रेशे तक समाया रस..
“ल गुरु 5 रुपिया के पचास ग्राम”
खाइये तो कठोर लेकिन दांत तक जाते ही एकदम मुलायम हो जाता है।
क्या हुआ..पानी आया मुंह में.. ? 😊
गलत बात है जी ये तो बिल्कुल गलत बात…लेकिन क्या करेंगे,इसमें दोष आपका थोड़े है,ये तो बनारस की गलियों के कोने-कोने में चढ़ी कड़ाहियों और चौराहे-चौराहे पर ठेले पर चढ़े तवों का दोष हैं।
अगर आपने भी दर्शन-पूजन करने के बाद इन बनारसी व्यंजनों का लुत्फ न लिया तो यूँ समझें कि आपका बनारस आना-जाना व्यर्थ है।
आज हम अपने यात्रा ब्लॉग के वाराणसी सीरिज में इन्हीं Varanasi Food की व्याख्या करेंगे व आपको बताएंगे कि आप जब बनारस में आना हो तो इन बनारसी खाद्य पदार्थों को खाना,खिलाना और ले जाना न भूलें।
1- कचौड़ी जलेबी
अगर मंगल ग्रह से उठाकर आपको कोई सीधे धरती पर फेंक दे..और आप सीधे एक ऐसे चौराहे पर गिरें
जहाँ सुबह सवा छह बजे ही कचौड़ी-जलेबी खाने के लिए लोग लाइन में खड़े हों तो बिना हिला-हवाली के समझ लीजियेगा की आप बनारस में हैं।
जहां हर चौराहे पर एक कचौड़ी और जलेबी की दुकान है।

प्रसिद्धि की बात करें तो लँका स्थित चाची की कचौड़ी प्रसिद्ध है..जहां कभी अस्सी वर्षीया चाची खाने वाले को सब्जी और जलेबी के साथ चार गाली फ़्री में देतीं थीं और लोग भी खाकर धन्य होते थे।
आप हंसेंगे और पूछेंगे…अच्छा सच मे ऐसा होता था..? गाली भी। तो जी सर..बड़े-बड़े लाट साहबों को चाची के मुंह से गाली खाते मैनें ही सुना है।
इसे बनारस की तहजीब कहना ज्यादा उचित होगा।
चाची की दुकान लँका चौराहे पर ठीक वहाँ है जहाँ आप ठीक से खड़े नहीं हो सकते लेकिन बड़े-बड़े वीआईपी लोग हाथों में पत्तल और दोना लेकर अपनी बारी का इंतजार करतें हैं।
इसके अलावा भी आप गोदौलिया चौराहे के आस-पास किसी भी दुकान से कचौड़ी-जलेबी का आनंद ले सकते हैं।
2-उत्तपम और इडली
उत्तपम-इडली-डोसा यूँ तो दक्षिण भारतीय व्यंजन है। लेकिन बनारसियों ने उत्तपम का कान पकड़कर इसे बनारसी बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है।
यहां सुबह-सुबह ही चौराहे- गलियों में ठेले और कोने-अत्तरों के रेले में तवा पर मक्खन दहकने लगता है।
कच्चे दाल-चावल का घोल,जिसे चौड़े-चकले दहकते तवे पर चपाती का आकार देने के बाद उस पर बारीक कटे टमाटर-प्याज और धनिया-मिर्च देकर सिझाया जाता है।
और फिर उसके बाद गुरु.. मक्खन की बारी आती है।

मक्खन का काम है करारापन जगाना..बनारसियों को हर चीज़ करारी चाइये.. समझ लीजिये की किसी दूसरे ग्रह की बस्तु के नाम के आगे भी अगर करारा लग जाए वो बनारसी हो जाता है।
बेचारे दक्षिण भारतीय उत्तपम और इडली,डोसा के साथ भी यही हुआ है।
मक्खन के संयोग से इसका नाम मखनिया उत्तपम हो गया है। जागरण ने एक दिन लिखा था।
‘मखनिया उत्तपम क खासियते ई हौ कि एके खाली मक्खन में सिझावल जाए,आउर गुलाबी रंगत तक पहुंचा के करारापन जगावल जाए।
एक बात सबसे जरूरी आउर हौ कि मक्खन पियावे में अगर करबा कंजूसी, त तय हौ कि आइटम हो जाई खरी-भूंसी।‘
हां उत्तपम की कतार सुर्ख और करारी तब होती है,जब राई के बघार वाली नारियल की चटनी के साथ उसका मजा लिया जाए।
सुबह-सुबह उत्तपम और इडली आपको गोदौलिया के आस-पास खूब मिलेगा।
3- लौंगलता और छोला समोसा
समय के साथ जैसे-जैसे मिलावट और दिखावट का दौर बढ़ता गया,लौंगलता से भी लौंग गायब होता गया। लेकिन इसके दीवानों की संख्या कम न हुई।
बनारस में आज भी हजारों लोग सांझ की उस प्यास का इंतजार करते हैं,जिसमे जिह्वा उनके चित्त को एक मधुर संदेश प्रेषित करते हुए कहती है..
“गुरु अब एगो लौंगलता हो जाए..मिजाज टनकल हौ”.
फिर तो लौंगलता जमाया जाता है।

लौंगलता भी ऐसा कि साहेब पूछिये मत,सुगर और बीपी भी उसका साइज देखकर शरमा जाएं..
किसी जमानें में हमारे झा की गरल सखी से जब ब्रेक अप हुआ तो उन्होंने अपने प्यार की डायरी में ब्रेक अप होने के विभिन्न कारणों में से एक कारण ये भी लिखा था..की मुझे लौंगलता पसन्द था और उसे छोला समोसा..ब्रेक अप न होता तो क्या होता। हाय।
खैर-
इतना जानिए कि जहां-जहां कचौड़ी मिलेगी वहाँ-वहाँ लौंगलता मिलने की संभावना रहती है।
इसलिए सुबह कचौड़ी खाते समय ही दुकानदार से पूछ लें कि लौंगलता कब छनबा भाए’?..और फिर हाजिर हो जाएं..मिज़ाज बनाकर।
4- मलइयो
वैसे तो मलइयो शीत ऋतू का पेय है जो साल के बस तीन महीने और दुनिया में सिर्फ बनारस में ही मिलता है..
मलइयो को बनाने की विधि भी बनारस की तरह कम अद्भुत नहीं है..
पहले कच्चे दूध को बड़े-बड़े कड़ाहों में खौलाया जाता है। फिर रात भर छत पर आसमान के नीचे रख कर ओस से स्नान कराया जाता है। रात भर ओस पडऩे के कारण इसमें गजब का झाग पैदा होता है।
सुबह कड़ाहे को उतारकर दूध को मथनी से मथा जाता है। फिर इसमें छोटी इलायची, केसर एवं मेवा डालकर फिर मथा जाता है। और तब गुरू दुकान पर रखकर ग्राहक को ललचाया जाता है।
गोदौलिया में मलइयो की दर्जनों दुकानें हैं,जहाँ आप अगर जाड़े में आते हैं तो आराम से इसका लुत्फ ले सकतें हैं।
5-लस्सी
कचौड़ी जलेबी को अगर बनारस की आत्मा कहा जाए तो लस्सी को किडनी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।
कुल्हड़ वाली लस्सी में रबड़ी मिलाकर उपर से जब गुलाब जल और केसर का छिड़काव किया जाता है,और महादेव का नाम लेकर जब गटका जाता तब एहसास होता है कि हं भगवान ने हमें इंसान बनाकर कम एहसान नहीं किया है।

लस्सी शास्त्र पर जितना लिखा जाए कम होगा..फिर कभी।
हाँ- गोदौलिया में दर्जनों लस्सी की दुकानें हैं..वहीं लँका स्थित पहलवान की दुकान की लस्सी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। यहां एक ही जगह आप,एक ही नाम से कई लस्सी की दुकानें देख सकतें हैं और उसका आनंद ले सकतें हैं।
6- चाट
यूँ तो चाट हर जगह उपलब्ध हो जाता है..आप जहां भी जाएं आपको गोलगप्पा और चाट आराम से मिल जाता है..लेकिन बनारस में गुरु कुछ ऐसे ठिकाने हैं,जहां चाट खाने और खिलाने के लिये मनोहर बो अपने मनोहर का दिमाग चाट कर दही कर देतीं हैं।
बनारस में चाट की दो दुकानें बहुत प्रसिद्ध हैं। पहला है गोदौलिया स्थित काशी चाट भंडार और दूसरा है लक्सा स्थित पीडीआर मॉल के करीब दीना चाट भंडार ..दोनों दुकानें पचासों साल पुरानी हैं,और दोनों की अपनी-अपनी चाट बनाने की वो खूबियां भी पुरानी हैं जो जीभ को बुरी तरह से व्याकुल कर देने का सामर्थ्य रखती हैं।
टमाटर चाट में धनिया,अदरक,जीरा मसाला,देशी घी,चाशनी,नींबू,धनिया पत्ता,नमकीन,टमाटर का रस,पोस्ता दाना और काजू मिलाकर तैयार किया जाता है..और जब मुंह में ले जाया जाता है तब पता चलता है कि ज़िंदगी का असली मज़ा चाट में है।
बस ध्यान रखें कि शाम के समय यानी छह से नौ बजे के आस-पास यहाँ पर्याप्त भीड़ होती है। इसलिए समय निकालकर इत्मीनान से जाएं।
7- भांग और ठंडई
इसके बिना क्या काशी की बात ही क्या.. यहां के बुजुर्गों ने कहा है कि काशी में स्नान,ध्यान,जलपान और पान के बाद जो काम बच जाता है..उसे भांग कहते हैं..जिसके कारण बनारस का शरीफ और जगहों के लंठ से दो किलो ज्यादा लंठ होता है।
अस्सी का गुरुओं और दशाश्वमेध के घण्टालों का मानना है कि हर आदमी को भांग जरूर लेना चाहिए..जो आदमी कहता है कि भांग से नशा होता है वो महा बौचट आदमी है.अरे! ये भी कोई नशा है। देखो तो ससुरा अमरीका वाला पी रहा,जापान वाला पी रहा..और इंग्लैंड वाला पीकर भोजपुरी और भोजपुरी वाला पीकर अंग्रेजी बोल रहा है।
फिर तो गुरु सुबह-शाम भांग छनाई शुरु हो जाती है..और कहते हैं इहाँ तरह-तरह से भांग छाना जाता है।कोई गोली बनाकर छानता है..तो कोई दूध के साथ लेना छानता है..तो कोई कसेरू नामक फल के साथ लेता है.

और कसेरू के साथ ले लेने पर मान लिया जाता है की “ई आदमी जवन है भाय. ई ससुरा बड़का रईस हौ”
भांग लेने के बाद जो बच जाते हैं कुछ शरीफ लोग..उनके लिए स्पेशल ठंडई की व्यवस्था भी है.
वो बनारसी ठंडई जो मिश्राम्बु नामक ब्रांड से आज देश दुनिया में फेमस हो चुकी है कि इसकी मांग इतनी ज्यादा हो जाती है कि लोग जाड़ा,गरमी बरसात पीते हैं..
जिसमें आमतौर पर तरबूजा,ककड़ी,खीरा,का बीज,गुलकंद,बादाम,काजू,काली मिर्च,सौंफ,पिस्ता, और तब गुरु उस पर से एकदम शुद्ध दूध डाला जाता है. और उसके बाद जब मिजाज में घोलकर गटका जाता है उसका जबाब नहीं होता है.
गोदौलिया चौराहे पर उतरते ही आपको दर्जनों ठंडई की दुकानें मिल जाएंगी। यहाँ आप किसी भी दुकान पर ठंडई का आनंद ले सकतें हैं।
पान-
पान का कहना ही क्या..पान के बारे में दुनिया जानती है..लेकिन ये नहीं जानती है कि सुबह उठकर एक पान मुंह में दबाकर जब तक अमरीका,ब्रिटेन की ऐसी की तैशी न कि जाए बनारस में मिज़ाज बनता ही नहीं है।
कुछ तो ऐसे धुरंधर पान खवईया हैं कि उनको देखकर भगवान भी एक बार मुंह के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर पर विचार करें।
बहरहाल आप पान खाना हो तो यूँ तो कहीं भी खा सकते हैं लेकिन केशव पान भंडार लँका ज्यादा प्रसिद्ध है। गोदौलिया में आप हैं तो फिर वहाँ आपको बढ़िया पान खाने के लिए विश्वनाथ गली में दीपक ताम्बूल भंडार या फिर गोदौलिया में गामा पान वाले के यहाँ जाना होगा।
जहाँ एक बार में डेढ़-डेढ़,दो-दो सौ पान बंधवा कर ले जाते हैं। और दिल्ली हों या देहरादून पान घुलाकर महादेव के साथ भोसड़ी के कहते हुए बनारस को अपने भीतर जिंदा रखते हैं।
दरअसल उपर वर्णित सारे खाद्य पदार्थ बनारस की आत्मा हैं..यहाँ फाइव स्टार होटल भी हैं..जहां एक से बढ़कर एक व्यंजन परोसे जाते हैं..लेकीन किसी संकरी गली के कोने पर खड़े होकर जलेबी खाने का जो सुख है न वो दुनिया में कहीं नहीं है।
बनारस का रस अगर आज भी जिंदा है तो इसमें इन कचौड़ी,जलेबी,लस्सी,ठंडई,मलइयो,और पान का बड़ा योगदान है। इनको खाना बस स्वाद को महसूस करना नहीं वरन नीरस होते जीवन में ताजगी जगाना है।
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