SELF TALK – आत्मसंवाद का एक अंश
आज बनारस.कई दिन बाद आके कमरा खोलता हूँ। ओह!.होली में गाँव चले जाने के कारण नाराज, मकान मालिक के पंचवर्षीय पुत्र ने अखबारों के पन्ने काट-काट के दीवाल पे चिपका दियें हैं.ये देख के उसकी मासूमियत पे घंटो हँसने का मन करता है.दरवाजा खोलता हूँ,अपलक कमरे की सारी चीजों को निहारता हूँ.मानो सब रूठ गयें हो कि “यूँ छोडकर क्यों चले गये “? सब कुछ बिखरा-बिखरा सा, जस का तस वहीं का वहीं एक ठहराव….. मानो बिरजू महाराज आमद की तिहाई पे रुक गयें हो.दिल कहता है ये ठहराव कितना सुंदर है अतुल बाबू.वहीं किताब के पन्ने फडफड़ा रहें हैं.जहाँ से पढना छोड़ गाँव चला गया था।
चित्रलेखा श्वेतांक से कहती है..”तुम अभी नही समझ सके श्वेतांक…. पिपासा तृप्त होने की चीज नही है.आग को पानी की नही घृत की आवश्यकता है जिससे वह और भडके । जीवन एक अविकल पिपासा है उसे तृप्त करना जीवन का अंत कर देना है” ओफ़्फ़……ये चित्रलेखा भी न.
वहीं बेतरतीब बिखरे अखबार और पत्रिकाओं से झांकते पन्ने आजकल में छपा पंडित जसराज का व्यक्तव्य….”संगीत मानव जीवन का उल्लास है” ……ये सच हैं पंडी जी सच है.तहलका के पुराने अंक में छपे नवाजुद्दीन सिद्दकी पे गौरव सोलंकी का आलेख । 500 डिग्री पे कैथोड को गलाते हाथ रात भर काम करतें हैं ताकि ड्रामा स्कूल की फ़ीस जमा की जा सके। ये नवाज तो मेरा हीरो है यार उसकी सफलता पे इतराने का मन करता है।
ओशो टाइम्स में.बुद्ध पर ओशो के प्रवचन का अंश…. की एक रात एक गाँव में बुद्ध ठहरतें हैं, साथ में उनका शिष्य आनंद भी है। एक व्यक्ति आता है और बुद्ध पर थूक के चला जाता है । आनन्द आश्चर्य से तथागत की ओर देखता है…. बुद्ध मुस्करा के कहतें हैं “भाषा बड़ी कमजोर है आनंद “। दुसरे दिन आता है और चरणों में गिर के रोने लगता है…” “देखो आनंद कहा था न, भाषा बड़ी कमजोर है, ये कुछ कहना चाहता है, कल भी कुछ कहना चाहता था.”
क्या बात कही बुद्ध ने ….”सच में यार अतुल बाबू ये भाषा बड़ी कमजोर है..दूसरी किताब का वही पन्ना.रेणू की कहानी लाल पान की बेगम में बलरामपुर की नाच देखने के लीये सज धज के बैठी वो स्त्री.अपनी बेटी से कहती है कि “आने दो तेरे बाबू को तो बतातीं हूँ”.आज मुनिया के भाई ने पहली बार पेंट पहना है…..मुझे मुनिया के बाबू पे बड़ी गुस्सा आता है, यार वो जल्दी क्यों नही आता.और उस मासूम से लड़के पे तरस जिसने आज पहली बार पेंट पहना है.
अब साज़..कसम से वो तो बहुत नाराज़ हैं मुझसे ,यही तो मेरे प्रेम हैं मेरी प्रेयसी.कई दिन से किसी को छेड़ा नही न.रूठे हैं मनाये जाने के इन्तजार में . रियाज करने के लीये रखे बनारस घराने की एक गत को वहीं तबले के साथ ढंक के छोड़ दिया है,तबले जी गुस्से में टेढ़े हो गयें हैं।वही हारमोनियम में रखे भूपाली के तान… गिटार के तारो में अटके वहि काड्र्स के नोटेशन। म्यूजिक सिस्टम चालू करता हूँ तो कुमार गंधर्व जी वहीं से गातें हैं…”शून्य शिखर पर अनहद बाजे जी…”
अब खिड़कियाँ खोलता हूँ …हवा में बासंती स्पर्श अभी गया नही..मन दौड़ता है ये सब देख के..जी करता है कुछ देर आँख बंद कर लूँ. इस ठहराव को महसूस करूँ.वही का वहीं सब कुछ, जहाँ से छोड़ दिया था… सोचता हूँ जीवन में सब कुछ वहीं का वहीं क्यों नही रहता? जहाँ से व्यक्ति छोड़ देता है. ऐसा होता तो कितना अच्छा होता न?….. पर अपने नीरा मुर्खता भरी सोच पे हसने का मन होता है यार। “ये क्या बचपना है अतुल बाबू”
(आज कमरे से बात करने के बाद)
मार्च 14। बनारस।