चलना एक कला है और रुकना भी। लेकिन ये भौतिकतावादी समय हमसे कह रहा है कि भागो,भागो नहीं तो तुम पीछे छूट जावोगे। दिन-रात मोटिवेशनल स्पीकर चिल्ला रहे हैं,”अरे,तुम यही हो। वो देखो,वो तुम्हारा ही दोस्त तुमसे कितना जल्दी आगे चला गया,जल्दी करो…!
ये सुनकर हम भाग रहें हैं और भागने की जल्दी में देख भी नहीं पा रहें हैं कि कहीं न कहीं हमें कुछ देर के लिए रुकना पड़ेगा। रुककर सुस्ताना पडेगा,अगर हम नहीं रुके तो जीवन रुक जाएगा।
फिर व्यर्थ हो जाएगी ये रेस,ये महत्वाकांक्षा सब कुछ ! जब जीवन नही रहेगा तो रेस का क्या मतलब ?
आज की बात सिर्फ़ सिद्धार्थ शुक्ला के हृदय गति रुकने की नहीं है। कहीं न कहीं बात हम सबकी है।
ध्यान से देखिये तो हृदय गति हमारी भले न बन्द हुई हो लेकिन हृदय गति हमारी बढ़ जरूर गई है।
ऐसा लगता है कि ये पूरी कायनात हमें बेचैन बना रही है। सहजता समाप्त सी हो रही है। जल्दी-जल्दी हम वो होना चाहते हैं,जो हम नहीं हैं। जल्दी-जल्दी हम वो दिखना चाहते हैं,जो हम तमाम सेलीब्रेटी लोगों में देख रहें हैं।
एक आग सी लगी है सबके अंदर। और इस आग में सबसे ज्यादा घी बन गया है सोशल मीडिया। इसने तो इस रोग को इस कदर बढ़ा दिया है कि आज हर आदमी इंफ्लुएंसर और सेलोब्रेटी ही बनना चाहता है। उससे नीचे मानने को तैयार ही नही है।
मैं जानता हूँ कि हर आदमी विशिष्ट है। उसकी विशिष्टता ही उसे मौलिक बनाती है लेकिन जीवन में जितनी विशिष्टता का महत्व है,उतना ही महत्व सहजता का भी है।
मैं रोज कई लोगों को समझाता हूँ,”भाई सोशल मीडिया पर दिखने के चक्कर में न पड़ो,पहले पढ़ाई तो कर लो। एक सफल जीवन के लिए लाइक,कमेंट से ज्यादा ज्ञान और विवेक की जरूरत है। अगर वो नहीं हुआ तो ये क्षणिक सफलता और चकाचौंध को खत्म होने में एक मिनट की देरी नहीं होगी…
लेकिन लोग सुनने को तैयार नहीं। एक लड़के नें पिछले दिन मुझे खारिज करते हुए कहा था, भइया आप कहाँ हैं, देख रहे हैं,उस लड़के को इंस्टाग्राम की प्रति पोस्ट का चार लाख रुपये लेता है। कोई पढ़कर क्या कमाएगा..! असली कमाई तो उसमें भी है।
मैं भी मानता हूं कि ऐसा है। तमाम प्रतिभाशाली लोगो का जीवन इससे सुधरा है जो कि अच्छी बात है। लेकिन हर आदमी वही नही बन सकता। ये बस कुछ प्रतिशत लोगों को ही सम्भव होता है और आप उसकी गहराई में जाएंगे तो और ज्यादा दुःखी होंगे। क्योंकि हमारे सामने एकदम चमकती और पॉलिश्ड चीज़ ही आती है,उसके भीतर का अंधेरा और कालापन हम नहीं देख पाते हैं।
लेकिन नहीं। ये समझना किसको है। सोशल मीडिया नें तुलनात्मक अध्यन बढ़ा दिया है। हम स्वयं को दूसरे औसत सेलीब्रेटी से तुलना कर रहे हैं। और तुलना करके मान ले रहे हैं कि अरे! जब उस आदमी के दस लाख फॉलोवर्स हो सकतें हैं,लाखो में कमाई हो सकती है तो हमारी क्यों नहीं हो सकती।
बस इसी चाहत में युवाओं नींद कम हुई है। स्ट्रेस बढ़ गया है। जो थोड़ा बहुत कुछ रचनात्मक कर ले रहे हैं,वो भी दूसरों से अपनी तुलना करके दुःखी हैं।
पांच सौ लाइक्स वाला हजार वाले से दुःखी है। हजार वाला दस हजार वाले से।दस हजार वाला मिलियन वालों को देखकर सांस नहीं ले पा रहा है। जो फेसबुक पर जम गया वो,यू ट्यूब पर जाना चाहता है। जो यू ट्यूब पर जम गया उसे इंस्टाग्राम पर भी जमना है। जो हर जगह जमा है वो अब ऑफलाइन जमा रहा है।
बस वही हाल आभासी दुनिया के बाहर भी है। वहां भी कौन सा सुकून है। गाँव में होड़ लगी है कि शहर में बस जाए..गाजियाबाद में घर खरीद लिया गया है तो नोएडा में भी होना चाहिए। शहर तो बेचैनीयो के के चलते-फिरते स्मारक बन गए हैं। यहाँ भी सपने पूरे करने का युद्ध छिड़ा है।
मुम्बई-दिल्ली, बैंगलोर जैसे बड़े महानगरों की सड़कें देखता हूँ तो मैं कई बार यही सोचता हूँ। ये लोग नहीं भाग नहीं रहे हैं,उनके उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ भाग रहा है।
आप भी भागिए,भागना जरूरी है। सपने भी जरूरी है। अगर सपने नही होते तो हम इस अत्याधुनिक समय मे जी नही रहे होते। मनुष्य के सपनों नें ही दुनिया बदली है। लेकिन इस सपनों की भागमभाग के बीच थोड़ा सा रुकना भी जरूरी है। सिद्धार्थ शुक्ला को तो डॉक्टर नें कहा भी था कि कुछ दिन के लिए रुक जावो
क्या पता आपको-हमको डॉक्टर तक जानें नौबत ही न आए..! एक शेर मौजूं है।
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
हैरत में हूँ ये किस का मुझे इंतिज़ार है