तीस मई का सूरज आसमान में जल रहा है। तापमान पैंतालीस। शरीर का पसीना चावल में अदहन की तरह फफ़ा रहा। मोबाइल में देख रहा लुटियन आज अपनी डिजायनर दिल्ली की भव्यता पर हंस रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पद और गोपनीयता की शपथ लेने जा रहें हैं,इधर हम दो मित्र गोरखपुर से नेपाल बार्डर जाने की।
गर्मी से शरीर का हाल ये है कि बलिया से गोरखपुर आने के क्रम में ही शरीर झुलस चुका है। घड़ी में दो बज रहें हैं। मित्र रितेश की दो बजे से एक परीक्षा है। वो गोरखपुर पहुँचते ही दौड़कर परीक्षा केंद्र जातें हैं।
मैं सोचता हूँ कि तीन घण्टे की बात है। बैठकर कहीं गुजार लेते हैं। गोरखपुर में इतने सारे मित्र तो हैं,लेकिन किसी को इतनी तीखी धूप में डिस्टर्ब करना भी अत्याचार की श्रेणी में आएगा न?
गन्ने के रस और इस सद्भावना पूर्ण विचार के साथ फेसबुकियाने के लिए मोबाइल आन करता ही हूँ कि मेरे गोरखपुर आने की ख़बर मार्क जुकरबर्ग,प्रिय Harinath Yadav भैया को दे देते हैं।
भैया का झट से फोन आता है, “अरे! अतुल भाई आप गोरखपुर में हैं क्या” ?
मैं हैरान, “भैया कैसे पता चला” ?
“अरे! फेसबुकवा बता रहा है कि अतुल कुमार राय नामक प्राणी आपके करीब है।”
मैं बताता हूँ कि “भैया मैं सिर्फ़ आपके ही करीब नहीं,आपके दिल के भी करीब हूँ। छात्र संघ चौराहा पर खड़ा हूँ।”
भैया हंसते हुए पाँच मिनट में आंखों के सामने हाज़िर।
“अतुल भाई घर चलें।आपकी भाभी तो नइहर चली गईं हैं,पहले आपको ये ख़िलातें हैं,वो पिलातें हैं।” मैं हाथ जोड़ता हूँ, “भैया इतना स्नेह बहुत है,घर पर फिर कभी।”
फिर तो भैया का आदेश होता है कि “चलिये पहले किसी ठंडी जगह बैठते हैं।” दो मिनट में बगल के एक वातानुकूलित पिज़्ज़ा केंद्र पर हम दोनों हाज़िर हो जाते हैं।
“भैया हम पिज्ज़ा नहीं खाते..एक रत्ती पसन्द नहीं।”
“अतुल भाई खाना पड़ेगा,कितने सौभाग्य से तो फेसबुक से निकलकर बाहर मिले हैं।”
दिल से आवाज़ आती है,…”हे हरी-हे नाथ,आपके प्रेम में तो एक बार ज़हर खाया जा सकता है,ये तो पिज्ज़ा ही है।”
उसके पहले आपको बता दूं हरिनाथ भैया हमारे संगीत के रसिया और मिज़ाजी आदमी हैं। वर्षों तक ओमान और दुबई में नौकरी करने के बावजूद इनके और खाँटीपने के बीच बस एक पिज़्ज़ा ही आ पाया है।
और हम इधर संगीत में प्ले स्कूल के विद्यार्थी। बात छिड़ जाती है ‘बिरहा’ पर। बिरहा गायकी के हम दोनों शौकीन। रामदेव यादव,काशी,बुल्लू, ओमप्रकाश,विजय लाल,रजनीगंधा,मीरा मूर्ति से लेकर,परशुराम यादव,सुरेंद्र यादव और मन्ना लाल यादव तक।
मैं बताता हूँ कि “भैया जिस दिन हीरालाल यादव जी मरे,उस दिन मैं “मछलीशहर कांड” सुन रहा था। और जैसे-जैसे वो गा रहे थे,वैसे-वैसे मेरी आँखें गीली हो रही थीं।
भैया भी बताते हैं,अपने पिताश्री और बाबा के बिरहा वाले किस्से। बिरहा गायकी और गाँव की शौकीनी। खत्म होती परम्परागत शैली,हावी होता बाज़ार और बढ़ती अश्लीलता।
मैं वादा करता हूँ कि मैं किसी दिन रामदेव यादव और हीरालाल यादव पर लिखूँगा,ताकि युवा पीढ़ी माटी के इन अनगढ़ हीरों को सुने-गुने और सीखे।
तब तक बात आ जाती है रामगढ़ ताल पर। घड़ी में देख रहा साढ़े तीन बज रहे हैं। इतनी तीखी धूप में ताल-तलैया कौन देखता।लेकिन भैया के प्रेम वश जाना पड़ता है। और रामगढ़ ताल को गोरखपुर का पिकनिक स्पॉट बनते देखकर प्रसन्न होना पड़ता है।
देख रहा सरकार का काम सराहनीय है। घूमकर भुट्टा खाते और बात करते हुए ये समझ में आ जाता है कि ये जगह सिर्फ़ घूमने के लिए ही नहीं,प्यार-मोहब्बत करने के लिए भी आदर्श और रमणीक जगह है।
सरकार का विज़न हो तो हर शहर में ऐसे दो-चार जगहों को विकसित करके पर्यटन और प्रेम दोनों को एक साथ बढ़ाया जा सकता है।
इस सोच-विचार में पांच बज जाते हैं। हरिनाथ भैया बस स्टैंड पर छोड़तें हैं। विदा के समय गले मिला जाता है। भावुक क्षण है। मैं देर तक सोचता रह जाता हूँ…”अतुल बाबू ! देख लीजिए,आपने फेसबुकिया लेखन से यही कमाया है।”
मित्रों- बात कमाई की से हटकर घुमाई टाइप नवीन संकट पर केंद्रित हो जाती है। भागा-दौड़ी में पता चलता है कि भारत-नेपाल बार्डर यानी सोनौली जाने वाली आख़िरी बस जा चुकी है।
लेकिन एक वरिष्ठ किस्म के बुद्धिजीवी की सलाह मानें तो हमें उदास होने की जरूरत नहीं है। हमें मारुति 800 पर सवार होकर आज रात बॉर्डर पर ही रुक जाना चाहिए।
असली फ़िल्म तो सुबह शुरू होगी।
“साधो ये जग बौराना” टाइप फीलिंग्स के साथ बार्डर पर ही एक कमरा लिया जाता है। देख रहा बैग में माँ नें वही पारम्परिक पूड़ी,आलू की भुजिया और अंचार दिया है। साथ में उसका स्नेह टपक रहा है। जिसे नहाकर-खाकर और देश बेचकर चऊचक सूताई होती है।
अगले दिन सुबह सात बजने को हैं। पोखरा जाने वाली बस का क्लीनर बार-बार आकर बोल रहा, “भैया चलेंगे ? टाइम हो गया।”
मैं देख रहा बस में मुश्किल से पाँच लोग ही हैं। वो भी हमारी तरह शायद घूमने ही जा रहें हैं। बग़ल में एक भैया और भौजी भी हैं। जिनको देखकर लगता है कि शायद इसी फागुन में बियाह हुआ है और दुर्योग से गेंहू काटने के चक्कर में हनीमून बाकी रह गया है।
भौजी ने बैंगनी चूड़ी पहनी है और ग़ुलाबी साड़ी। कभी माथे की टिकुली सही कर रहीं हैं तो कभी साड़ी का पल्लू।
इधर भइया हैं कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में साईं बाबा का चमत्कार होते देखे जा रहे हैं। भौजी हैं कि हाथ में हाथ लेकर आंखों से बोले जा रही हैं, ” ए जी सुन रहें हैं… आप नs.. सुधरेंगे नहीं क्या ?
इधर बस के बाहर मौसम रोमांटिक हुआ जाता है। बस चाल पकड़ती है। मैं नज़रें हटाकर खिड़की के बाहर लगा देता हूँ। ड्राइवर ने गाना बजा दिया है..
“फ़ायर ब्रिगेड मंगवा दे तू,अंगारों पे है अरमां..ओ बलमाsss….
इधर मन नेपाल देखने की उत्सुकता में आंखें चौड़ी कर लेता है ।
देख रहा कितना खूबसूरत स्वच्छ और सुंदर है सब कुछ। कोई अंतर तो नहीं,इस पार और उस पार में।वही देवनागरी लिपि,वही खेत, वही करीने से सजे छोटे-छोटे सुंदर घर। हर घर के आगे तुलसी जी। वही प्यारे और शांत लोग।
लगभग एक घण्टे के बाद पहली बार ऊंचे पहाड़ों, नीची खाइयों,गिर रहे झरनों और लहरा रहे जंगलों का दीदार होता है।
मैं कैमरा निकाल लेता हूँ कि मित्र कान में कहते हैं, “अरे! अभी तो फ़िल्म शुरू भी नही हुई। चार घण्टे ऐसे ही पहाड़ों पर चलने के बाद हम पोखरा पहुंचेंगे।” मैं आश्चर्य से आंखे फ़ैलाकर कैमरा रख देता हूँ।
बस लगभग दो घण्टे हरहराकर चलती है। ड्राइवर ने फ़ायर ब्रिगेड से ध्यान हटाकर नेपाली लोकसंगीत की तरफ़ गेयर शिफ़्ट कर दिया है।
मैं ऊँचे-ऊँचे पहाड़ देखकर और नेपाली संगीत सुनकर खो सा जाता हूँ..दिल पूछता है, “ज़िंदगी तू कभी-कभी इतनी खूबसूरत क्यों लगने लगती है” ?
इस आध्यात्मिक प्रश्न पर तब ब्रेक लगता है,जब बस एक ख़ूबसूरत हिल स्टेशन पर रुकती है। चाय-पकौड़ी होता है। और देखते ही देखते कब मैं बस में ही सो जाता हूँ,पता नहीं चलता है।
मित्र उठाते हैं। घड़ी में देख रहा दिन के चार बज गए। और हम अभी उसी स्पीड में चले जा रहें हैं। मंजिल का पता नहीं,लेकिन रास्ते बहुत खूबसूरत हैं।
पहाड़ और बड़े हो गए हैं। खाइयां औऱ गहरी हो गईं हैं। हजारों फीट ऊँचाई से नीचे देखते ही रूह कांप जाती है। दिल सोचने पर विवश हो जाता है कि ये लोग कैसे जीते हैं?
एकदम किनारो पर बने नेपाली लोगों की उत्कट जिजीविषा की गाथा गा रहे छोटे-छोटे सुंदर-सुंदर घर इसका उत्तर देने लगते हैं।
दिल से आवाज़ आती है कि सीमित संसाधनों में असीमित खुशी के साथ रहना अगर कोई सीखा सकता है,तो वो पहाड़ के लोग ही सीखा सकते हैं।
लीजिये वो जगह आ गई,जिसका हमें पिछले सात घण्टे से इंतज़ार था। पोखरा आ गया। एक सुंदर सा विकसित औऱ सभ्य और बच्चे जैसा छोटा शहर..जो रोज रात में जवान होता है,रोज सुबह बच्चा हो जाता है।
विश्वास नहीं होता।
सामने फेवा लेक की अपार खूबसूरती भरतनाट्यम कर रही है। उसी के ठीक बगल में पहाड़ों से बात करता हुआ अपना कमरा उसकी संगति कर रहा है।
होटल की खिड़की खोलते ही मन नांचने लगता है।
मित्र कहते हैं,”जल्दी से तैयार होइये, फेवा लेक पर बोटिंग करते हैं।”
मैं सोचता हूँ सामने ही तो पहाड़ है, यहीं खड़े होकर देखते हैं न ?
लेकिन नहीं। पांच बजे हम एक खूबसूरत और रंगीन नाँव पर सवार होते हैं,नाव चल पड़ती है। देख रहा सूरज बस डूब रहा। फेवा लेक का पानी नीला पड़ गया है। एक तरफ बेहद घना जंगल दूसरी तरफ पोखरा का भव्य बाज़ार। मन ‘बंदिनी’ का ‘सचिन देव बर्मन’ हो जाता है..
“ओ रे मांझी….मेरे साजन हैं उस पार…”
घने जंगलों औऱ झील को देखकर एनाकोंडा के जंगलों की याद आ जाती है।
लेक में ही एक मंदिर है। न जाने किस भगवान का। वहाँ लोग दर्शन करने कम फ़ोटो लेने ज्यादा जाते हैं। एक भौजी अपना कैमरा देकर और भैया के कमर में हाथ डालकर कहती हैं, “एक फ़ोटो खींच दीजिये न..
मैं अपना कैमरा रखकर उनके कैमरे से तस्वीर ले लेता हूँ।
अब वहाँ से लौटने की बारी है। शांत झील देखकर मन एकदम शांत हो गया है। नींद सी आ रही है। नाव से उतरने के बाद पोखरा बाज़ार से पहली बार सामना होता है।
कितना खूबसूरत बाजार,साफ-स्वच्छ दुकानें। खूबसूरत गलियां,बड़े-छोटे,महंगे और सस्ते होटल,अनगिनत रेस्टुरेंट,न कोई नेताओ की होर्डिंग न बैनर। सब कुछ करीने से सजा और व्यवस्थित।
लेकिन बात यहाँ आकर फँस जाती है कि सुबह तीन बजे उठना है तो हमें झट से खाना खाकर सो जाना चाहिए। उससे पहले बुलेट आ जाती है क्योंकि हमें सारँगकोट की विश्वप्रसिद्ध सुबह देखनी है। वो सुबह जहाँ उगते सूरज को देखने दुनिया भर के लोग आतें हैं।
खाना खाकर,पंखा चलाकर और रजाई ओढ़कर सो लिया जाता है।
अलार्म बज उठता है। सुबह तीन बज रहे हैं। नौ बजे तक सोने वाले मित्र रितेश हमको जगा रहे हैं, “उठबs हो” ?
सच कहूँ तो उठने का मन नहीं कर रहा। खिड़की से हल्की बारिश की आहट हो रही। मौसम में ठंडक बढ़ गई है। जैसे-तैसे तैयार होकर ठीक चार बजे हम दोनों पोखरा से छह हज़ार फीट ऊपर सारँगकोट जाने के लिए तैयार हो जातें हैं।
कमरे से बाहर आने पर हल्की बारिश से सामना होता है। मित्र बुलेट चालू करते हैं और मैं गूगल मैप। देख रहें हैं जहाँ से खड़े हैं वहाँ से सारँगकोट माउंट एवरेस्ट की तरह नज़र आता है।
इधर समूचा पोखरा सोया है। हमारी गाड़ी चल पड़ती है। बारिश की बूंदे भीगा रहीं हैं,थोड़ा सा डरा भी रहीं हैं कि अनजान शहर,भोर में पांच लाख नेपाली मुद्रा वाली बुलेट के साथ। सड़क पर एकदम सन्नाटा। इतनी बारिश में फिसलकर खाई में ही गिर गए तो क्या होगा..?
आगे जाकर बारिश और तेज़ हो जाती है। डरावना अंधेरा, लैम्पपोस्ट की मद्धिम रोशनी से सजे रास्ते।ऊंचे-ऊँचे पहाड़,और हजारों फीट खाई सब मिलकर ऐसा डरा रहें हैं कि जीवन निस्सार लगने लगता है।
लेकिन अगले पल हिम्मत आती है। दिल कहता है,”बच्चा यही तो यायावरी का सुख है,मरना होगा तो बलिया में अमरूद के पेड़ से गिरकर मर जाएंगे”
इस हिम्मत के बाद बारिश के छींटें अब आंखों की पलकों को बंद कराने लगतीं हैं। एक जगह हम दोनों रुक जाते हैं। सामने भोर में सारँगकोट जाने वाली गाड़ी कभी-कभी आ जाती है तो लगता है कि दुनिया में बस एक हम ही पागल नहीं,कुछ और लोग भी हैं।
रास्ते भटकते हुए हम सारँगकोट के मॉर्निंग व्यू प्वांइट पर पहुंच जाते हैं,जहां दुनिया भर के सैलानी हाज़िर हैं।
आसमान में बादल हैं.. मन निराश सा हो जाता है। इतनी मेहनत करके यहाँ आए और सूरज भी न उगे,तो आने से क्या फायदा..?
तभी थोड़ी देर में हवा बहती है। अंधेरा छटता है।आसमान से लाली निकल आती है। मानों सूरज आज लाली लगाकर बादलों की डोली से बस निकलने ही वाला हो।
न जाने कहाँ-कहाँ के फोटोग्राफर जमा हैं।।कैमरे में अपर्चर, शटर स्पीड और आईएसओ खूब घटाया-बढ़ाया जाता है। और हल्का सा सूरज के देखते ही सबका मन झूम उठता है। वहीं चाय होता है और ढेर सारी सेल्फी।
लौटकर कमरे पर आकर एक नींद फिर ली जाती है। दोपहर में कुछ गुफाएं,कुछ आस-पास के मंदिरों की घुमाई होती है।
औऱ ऐसी घुमाई होती है कि तीन दिन तक लगातार बुलेट से हम दोनों छान मारते हैं।
ऊँचे पहाड़ों और घने जंगलों में न कहीं डर लगता है,न कहीं भय.. हम रास्ते भूल भी जाते हैं तो मुस्कराकर रास्ते बताने वाले लोग हाज़िर हो जाते हैं।
नेपाल के गाँव देखकर लगता है कि आधुनिक होना और उसी के साथ पारम्परिक होना देखना हो तो नेपाल को देखा जा सकता है।
धामपुस को देखकर लगता है कि काश इस गाँव में हमारा एक घर होता है।
रूपा कोट की साँझ के लुभावने रुप का वर्णन किस अंदाज में करें ये समझ से बाहर है।
सबका विस्तार से वर्णन करूँ तो एक उपन्यास हो जाए ।
लेकिन मित्रों- जाते-जाते नेपाल ने यायावरी का तिलिस्म जगा दिया है।नेपाल के प्यारे और ईमानदार लोगों ने प्रेम भर दिया है। मन अब भी उन्हीं जंगलों, पहाड़ो और झरनों में भटकना चाहता है।
मन जान गया है कि दुनिया सिर्फ एक शहर और एक गाँव नहीं है। दुनिया अद्भुत औऱ खूबसूरत है। दुनिया में सिर्फ दुःख औऱ संताप नहीं है, बल्कि बहुत कुछ सकारात्मक और सुंदर है।
दुनिया के इस सौंदर्य को नून-तेल,लकड़ी के चक्कर में खोना नहीं देख लेना है।
नेपाल ने हमें बताया है कि देखने के लिए पैसे की जरूरत कम,जज्बे की जरूरत ज्यादा है।
बीच-बीच हमें अपने इस जज़्बे को जगाना है,नही तो जीवन मशीनी कब हो जाएगा पता न चलेगा।
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