दोपहर की तल्ख धूप है और हवा तेज। नायिका के चेहरे से गिरता पसीना सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली सारी कम्पनियों को मुंह चिढ़ा रहा है।
फलस्वरूप नायिका की जान लेबनान में परिवर्तित होने ही वाली होती है कि नायक उसका हाथ थामकर धीरे से कहता है, “बस, थोड़ी दूर और.. उसके बाद सड़क एकदम ठीक हो जाएगी।”
हम देख रहें हैं…जिधर तक नजर जाती है..समूची सड़क टूटकर उबड़खाबड़ हो चुकी है। हर एक मीटर पर बड़े-बड़े गड्ढे सिस्टम की लापरवाही का रोना रो रहें हैं।
ऐसा लगता है कि इस सड़क को बनाने लायक नही समझा गया है। या फिर विधायक जी से कमीशन को लेकर आज ही ठेकेदार का झगड़ा हो गया है।
या पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर ने अपने हिस्से के अभाव में बजट पास नही किया है। या फिर कोलतार का उत्पादन ठप्प है ,सारे मजदूर हड़ताल पर हैं या फिर किसी यू टयूब के क्रांतिकारी पत्रकार से ये सड़क अछूती रह गई है।
जो भी हो..नायिका इस दुर्गम, दुरूह,दुष्कर सड़क पर दुपट्टे से पसीने को पोछती, हाथ में भक्तिकालीन साहित्य की किताबें लेकर बड़े ही निरपेक्ष भाव से चलती जा रही है औऱ नायक को देखती जा रही है।
नायक इस दुर्गम रस्ते पर अपनी पंचर मोटरसाइकिल घसीटता जा रहा है…घसीटने के चक्कर में उसकी पूरी शर्ट भीग चुकी है। मोटरसाइकिल ज्यों ही थोड़ा आगे बढ़ती है, लोक निर्माण विभाग का पत्थर उसका रस्ता रोक देता है और पूछ देता है, ऐसे कैसे आगे चले जावोगे बेटा ?
ये दृश्य देखकर नायिका का ह्र्दय द्रवित हो उठता है…तुरंत अपनी किताबों को हाथों में समेटे मोटरसाइकिल को पीछे से धक्का लगाकर सच्चे प्रेमी होने का फर्ज अदा करती है..लेकिन फिर एक पत्थर आ जाता है और मोटरसाइकिल के रिंग में फंस जाता है..नायक झल्लाकर कहता है, “तुम रहने दो…तुमसे न होगा, तुम बस झगड़ा ही कर सकती हो।”
इतना सुनते ही नायिका का मुंह लाल हो जाता है। वहीं रुक जाती है। नायक नायिका की तरफ घूरते हुए मोटरसाइकिल को पत्थरों के बीच से निकालता है औऱ मनुहार करता है, अब चलोगी भी ?
सच कहूं तो रहीमदास होते तो इस दृश्य को देखकर चार डिजिटल आंसू बहा देते और अपना व्हाट्सएप स्टेटस अपडेट करते हुए लिखते..
’प्रेम पंथ ऐसो कठिन सब कोऊ निबहत नाहीं,
रहिमन मैन-तुरंग चढ़ी,चलिबो पावक माहीं’
लेकिन रहीमदास जी को भी क्या ही पता कि आज इस आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के जमाने में मोम के घोड़े पर चढ़कर आग में चलना आसान हो चुका है लेकिन विधायक,मंत्री और ठीकेदारों की कृपा से कुछ ऐसी कटीली,पथरीली राहें आज भी हर शहर में जिंदा हैं, जिन पर चलना आग पर चलने से भी ज़्यादा मुश्किल काम है।
इधर नायक का संघर्ष देखकर नायिका का ह्रदय द्रवित होकर कोलतार हो चुका है। अचानक प्रेम पर पढ़ी सारी सारी कविताएं एक-एक करके हवाओं में बहनें लगीं हैं।
मन प्रेम की सपनीली पुकार सुनने को व्याकुल हो रहा है..सोचती है, कितना मेहनती और धैर्यवान प्रेमी पाया है उसने..जी में आता है, इसे कहीं छिपाकर रख दे।
वो इस दुर्गम रस्ते को धन्यवाद देती है। नेशनल हाइवे पर तो हर प्रेमी चल सकता है…असली प्रेमी वो है जो इस पथरीली राह पर चलकर दिखा दे..नायिका दो-चार सेल्फियां लेती है..एक रील भी बनाती है।
ऐसा लगता है अचानक उसे बुद्धत्व की प्राप्ति हो चुकी हो। नायक भी मन ही मन मुस्कराता है…मुश्किल से सौ मीटर ही बचे हैं…आगे सड़क ठीक मालूम पड़ती है…नायिका अपनी सांसों को रोककर तुरंत पूछती है..”विधायक जी तुमको टेंडर दे रहे है न ?
विधायक जी का नाम सुनते ही मोटरसाइकिल और पत्थरों के द्वंद्व में जूझता नायक किसी दलबदलू प्रत्याशी जैसा जोश में आ जाता है,”बीए से लेकर एमए तक पूरे पांच साल उनके स्कार्पियो में पीछे बैठकर घूमे हैं, हमको ठेका नही देंगे तो किसको देंगे ?”
नायिका नायक के इस आत्मविश्वास को देखकर मन ही मन मुग्ध होती है। “ठेका हो जाएगा तब तुम पापा से बात करोगे मेरे लिए..?” नायक मुस्कराता है..बिल्कुल करूँगा।
नायिका समझ नही पा रही आगे क्या कहे…थोड़ी देर बाद कहती है…”ठेका मिल जाएगा तो सड़क अच्छी बनाना..थोड़ा कम करप्शन करोगे तो भी मैं तुम्हारे साथ राजी-खुशी रह लूंगी.. “नायक मुस्कराता है, “तुम बेवकूफ हो..आधा से अधिक पैसा तो कमीशन में चला जाता है। आधे पैसे में अच्छी सड़क बनाऊंगा तो पैसे कैसे कमाऊंगा…अभी शादी बाद तुमको बाली भी तो घुमाना है।”
नायिका सोच में पड़ जाती है…मोबाइल का नोटिफिकेशन देखती है. देखते ही देखते बाली की हसीं वादियां उसकी इंस्टाग्राम फीड में नांचने लगती हैं। तब तक टूटी सड़क की सीमा समाप्त हो जाती है, दोनों एक आरसीसी रोड पर आ जाते हैं..नायिका का मन बदलता है.. धीरे से हाथ पकड़कर बोलती ठीक है बाबू ..पहले तुम पैसे कमाओ,पैसा बहुत ज़रूरी है।।
( दैनिक जागरण में प्रकाशित व्यंग्य )