कहा गया है कि आदमी प्रेम में हो और प्रेमी या प्रेयसी को पूजने का मन न करने लगे,तो समझ लेना चाहिए कि वो प्रेम नहीं,सिर्फ़ आकर्षण था।
इस आधुनिक दौर में रोज़ सम्बन्धों के बनते-बिगड़ते हालात,एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर, एक दूसरे को पीठ पीछे धोखेबाज़ी को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि हमारी पीढ़ी प्रेम और आकर्षण में फर्क नहीं कर पाई है।
पूजना तो दूर की बात है वो इन आत्मीय सम्बन्धों का सम्मान करना तक नहीं सीख पाई है।
तभी तो आज़ आकर्षण का जोर इतना है कि एक पल में लोगों का प्रेम बदल जाता है। आज़ किसी को ये अच्छा लग रहा है,कल वो अच्छा लगने लगता है।
आज़ हम इसको पाने की तलाश में थे,कल उसके मिल जाने के बाद दूसरे की तलाश शुरू हो जाती है। उसके करीब आने के बाद तीसरे की तलाश !
फ़िर वो तीसरा ख़ुदा तभी तक नज़र आता है,जब तक उसको पा नहीं लिया गया होता है।
ये सब देखकर लगता है कि प्रेम का सारा सौंदर्य एक दूसरे को करीब लाने के प्रयास में ही है। क़रीब आते ही सारा आकर्षण समाप्त सा हो जाता है।
वो उत्साह जो प्रेमी के लिए कविताएँ लिखवाता था,वो उमंग जो प्रेयसी के लिए गीत गवाता था वो धीरे-धीरे मंद पड़ने लगा है।
दरअसल इसके पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक वज़हें तलाश करनीं जरूरी हैं।
हमें स्वयं से एक बार पूछना है कि प्रेम जरुरी क्यों है ? ये पैदा क्यों हो जाता है।
साधारणतया और आदर्श रूप में हमारे भीतर प्रेम की मांग तभी होती है,जब हम भावनात्मक रूप से अकेलापान महसूस कर रहे होते हैं। हमें लगता है कि काश कोई होता जो हमारा ख्याल रखता। कोई हमारी ख़ुशी को दूना और ग़म को आधा कर देता।
उसके होने भर की कल्पना से मैं खुश होता।
ये सहज मानवीय आकांक्षा है जो बस स्वभाविक रूप से पैदा हो जाती है। और किसी उम्र में कभी भी पैदा हो सकती है।
कहा भी गया है कि प्रेम आत्मा का भोजन है। लाख सब कुछ हो लेकिन बिना इसके ज़िंदगी बेस्वाद और नीरस हो जाती है।
दूसरी मांग शरीर की है मन की है मन की अतृप्त कामनाओं की है। जो भौतिक चकाचौंध से शुरू होती है। जहाँ हमें वो व्यक्ति नहीं उसका रूप,उसका पद,
उसका का पैसा,उसका घर,उसकी नौकरी सहज आकृष्ट करते हैं।
और हम इन सबमें अपनी अतृप्त मादक कल्पनाओं को तुष्ट करने का प्रयास करने लगतें हैं।
लेकिन हम ये नहीं जान पाते कि विवेक न हो तो ये भैतिक कामुकता चित्त में घर कर जाती है। और तब बड़े जोर से आकर्षण हमें जकड़ लेता है।
हर वो आदमी जो हमारे अवचेतन में छिपी इस प्यास और अहंकार को तुष्ट करता हुआ प्रतीत होता है,वो सहज ही आकर्षण का केंद्र हो जाता है। जिसे बड़े ही चालाकी से हम प्रेम का नाम दे देते हैं।
हम उस व्यक्ति से बंध से जातें हैं। उसके शरीर,पद, धन,दौलत और भावों के प्रति दिन पर दिन अनुराग बढ़ता जाता है। जो सही मायने में अनुराग कम स्वार्थ ज्यादा होता है।
तीसर कारण है सौंदर्य का आकर्षण जिसके छिपी है वासना और कामुकता !
लेकिन आप देखें कि इसके पीछे भी हमारा दोष नहीं है।
दरअसल हमनें आज़ तक जो प्रेम जाना है, वो हमनें फिल्में देखकर सीखा है। हम हर पल देख रहें हैं कि हीरो हिरोइन की खूबसूरती पर लट्टू हो जाता है और प्यार के गीत गाने लगता है। और हिरोइन उसकी बाँहों में समा जाती है।
हमनें ज्यादातर इन्हीं रोमांटिक गानों से जाना है कि रोमांस क्या है। इनके बीच हुए कामुक दृश्यों से समझा है कि प्रेम क्या है ?
हमारे चित्त में बैठे प्रेम के संस्कार ज़्यादातर इन्हीं माध्यमों से आए हैं।
इन संस्कारों ने प्रेम को हमेशा इन्हीं शरीरी औऱ भौतिक आकर्षण के पैमाने से नापा है।
और यही कारण है कि ये संस्कार इतने खोखले हैं कि ये हमें आज़ तक बता नहीं पाए हैं कि प्रेम की अपनी मर्यादा क्या है..उसका उद्देश्य क्या है ? गरिमा क्या है उसकी ?
क्या एक दूसरे की कमर में हाथ डालकर गीत गाना ही प्रेम है ? क्या प्रेमिका के होठों पर होठ रख देना ही प्रेम है ?
बिल्कुल नहीं !
आप देखें तो पाएंगे कि आज जिस भी प्रेम सम्बन्धो की नींव इन शारिरिक भौतिक आकर्षण के आधार पर खड़ी होती है,वो एक दिन भरभराकर गिर जाती है।
क्योंकि आकर्षण हमारा मन पैदा करता है। मन की गतियाँ असीमित आकाश में उड़ना चाहती हैं।
आज कोई अच्छा लग रहा है,कल कोई और अच्छा लग सकता है।
आज उसकी आंखें और चाल ठीक लगती है..कल किसी और की आँखें और उसकी गहराई पागल बना सकती है।
आज़ इनका पद, रसूख और रईसी आकृष्ट करती है कल किसी और का कर सकती है।
क्योंकि इस अस्तित्व में न सौंदर्य की कमी है न अच्छाइयों की। न लोगों की कमी है न ही ख़्वाहिशों की !
ख़ुद से पूछना जरूरी है कि ख्वाहिशें एक या दो लोगों से पूरी नहीं हुईं तो क्या जरूरी है कि कोई तीसरा हमारी इस अंतस की प्यास को तृप्त कर ही देगा ?
बिल्कुल नहीं !
आखिर हमें थक-हारकर एक न एक दिन शरीर के आकर्षण और आत्मा के आकर्षण से पैदा हुए प्रेम में अंतर मालूम करना ही पड़ेगा।
नहीं तो हम प्रेम में खुश होने के नाम पर मृग मरीचिका की तरह भटकते रह जाएंगे..
और अंत में सिवाय हताशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
हमें जागरूक होना ही पड़ेगा..जानना होगा कि शरीर का आकर्षण तो स्वार्थ पैदा करता है। जहां हमारी सारी खुशी दूसरा तय करता है। वो बोले तो हम खुश होते हैं,न बोले तो निराश हो जातें हैं।
ज्यादा बोले और प्रेम जताए तो हम उसकी उपेक्षा करने लगते हैं। तब हम उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते।
और मजे की बात कि तब वहाँ आकर्षण होने लगता है,जहां प्रेम करने में कठिनाई हो..जिसको पा लेने में कठिनाई हो।
क्योंकि आसान और सहज चीज़ें हमारे मन को रास नहीं आतीं हैं।
लेकिन दूसरी ओर आत्मा का आकर्षण मन के कलुष को मिटाता है। व्यक्ति का शरीर वहाँ केंद्र में नहीं होता है,बल्कि उसके समूचे अस्तित्व से प्रेम होता जाता है।
वो करीब रहे या दूर, वो मिले की बिछड़ जाए,बिना इसकी चिंता के प्रेम बस किया जा रहा होता है।
ख़ाने से पहले उसकी याद आती है कि उसने खाया होगा नहीं ? जागने से पहले एक बार सोचा जाता है कि वो जग गया होगा न ? थकान होती है तो सहसा याद आती है कि कहीं वो भी तो नहीं थक गई होगी ?
एक पल अनजाने में जी घबरा उठता है, और तब हम बेचैन हो उठते हैं उसका हाल जानने के लिए कि तुम ठीक तो हो न ? घर आ गई,खा लिया कुछ
और उधर से आवाज़ आती है कि हं मैं ठीक हूँ बस तुम ठीक रहो..
फिर एक चैन की सांस ली जाती है।उस वक़्त समूची दुनिया ही प्रेम मय नज़र आती है।
सिर्फ एक में सृष्टि दिखाई देती है। उसका होना भर चित्त को आनंदित करता है।
वहाँ कोई शर्त नहीं होती है,कोई स्वार्थ नहीं होता है। प्रेम बस दिया जा रहा होता है..मांगा नहीं जाता है।
यही प्रेम की उदात्त अवस्था है। यही प्रेम की संवदेनशीलता है। जहां शरीर की बात नहीं,रूह की बात प्रधान है।
जहाँ भावों का सौन्दर्य शरीर,धन,पद के सौन्दर्य पर भारी है।
हम हों या आप प्रेम की इस कीमिया को समझना आवश्यक है। इसके बिना,आकर्षण और प्रेम में फर्क नहीं हो पाएगा। और प्रेम महज़ एक स्वार्थ पूर्ति का साधन बनकर रह जाएगा..
मुझे कई बार लगा है कि जिस दिन शरीर और आत्मा की मांग में फ़र्क करना आ जाएगा प्रेम उसी दिन सही मायनों में कायम रहेगा…प्रेम की खूबसूरती और मर्यादा बनी रहेगी…
प्रेम दुःख का नहीं,आनंद का साधन बनेगा।
और एक दिन ये स्वार्थ का संकुचन मिटेगा,प्रेम अपने व्यापक अर्थों में फलीभूत होगा।
हमें पता चलेगा कि बल्कि प्रेम में होना कुछ और बात है। प्रेम में होना अपनी आत्मा के करीब होना है। प्रेम में होना आवेश में नहीं सन्तुलन में होना है। प्रेम में होना बेवज़ह आनंद में होना है।