लोक में अश्लीलता बनाम भोजपुरी की अश्लीलता

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जैसे ही गाँव में इकलौते साले जी का आगमन होता है.गाँव के रोम-रोम में जीजत्व की भावना संचरण करने लगती है.वो साला उर्फ सार किसी एक का नहीं,बल्कि गाँव के समूचे खेत-खलिहान,मूंज-ऊख सिवान और पिपरा पर के बरम बाबा से लेकर डीह बाबा तक सबका सार होता है.

उम्र में कोई बुजुर्ग हों या छोटे बच्चे सब उनकी बहन का हाल-चाल जानने को बेताब रहते हैं..और आखिर पूछ ही देते हैं..

“काहो सार..”तिलक चढ़ावे आइल बाड़s.. का हाल बा तहार दीदीया के” ?

सार भी अगर जरा खुले मिज़ाज का है.वो भी जबाब दे देता है..

“ना जी रउरा दीदीया से भेंट करे आइल बानीं..”

फिर मैनें देखा है..शादी हो या ब्याह,गाँव हो या शहर,सार-जीजा जहाँ भी समूह में मिलते हैं तो कुछ देर तक सार के बहन की विशेषता जीजा जी बताते हैं..और जीजा जी के बहन की विशेषता साले जी.

आज तक कोई ऐसा समाचार नहीं आया कि “गाली देने के कारण सार ने अपने जीजा पर मुकदमा किया”.

जैसे सार गाँव भर का सार होता है उसी तरह साली भी गाँव भर की साली होती है.इस अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत का पालन करते हुए गाँव के लौंडे-लफाड़ी से लेकर बारह-तेरह घण्टा पढ़ने वाले पढ़ाकू लोग भी अक्सर गाँव पधारी साली जी को छेड़ते हैं…रास्ता चलने से लेकर,दरवाजे पर आने तक बेचारी को क्या-क्या नहीं सुनना पड़ता है.

कुछ तो सत्यप्रकाश,परमात्मा टाइप लोग होते हैं..जिनकी शक्ल देखकर आदमी शराफत की परिभाषा पर निंबन्ध लिख सकता है। ये लोग भी बेचारे..करिमना टाइप लफाड़ी के साथ बैठकर साली जी से पूछना नही भूलते हैं…

“का जी खूब खाs तानी न” ?

साली जी अगर संकोची स्वभाव की हैं तो मुंह ढाँपकर हंसते हुए चल देतीं हैं.वहीं जरा सी भी मुंह फट हैं तो झटाक से अपने कमान से तीर निकालकर कहती हैं.

“ए जी रऊरा के अपना दीदीया के खिअवला से फुर्सत मिली तब न ” ?

इस जबाब के बाद जिस रस की सृष्टि होती है..उसे ससुराल में बैठे जीजा जी और उनके साले-साली टाइप टाइप लोग ही बता पाएंगे…

लेकिन लोक की खूबसूरती यहाँ भी दिखती है.मजाक भी अगर एक मर्यादा में है तो इस मीठी नोंक-झोंक और मौखिक छेड़छाड़ का कोई बुरा नहीं मानता है।

अगर साली को आधी घर वाली समझने वाले वहशी जीजाओं के सड़क छाप शायरी और ऐतिहासिक प्रेम वृतांतों को छोड़ दिया जाए तो आज तक कोई समाचार नहीं आया कि “जीजा के मजाक का बुरा मान बैठी साली ने जीजा को बेलन से मारा’

वही हाल शादी ब्याह में होता है..शादी में ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि इस लोकाचार में मजाक करने,गाली देने,छेड़ने का जितना मौलिक अधिकार पुरूष को प्राप्त है.उससे कहीं ज्यादा सुसंस्कृत रूप से स्त्री को भी प्राप्त है..

मर्द ढोलक बजाकर गाली नहीं दे सकते..लेकिन गांव की उन तमाम समधिनों के मुँह में भले एक्को दांत न हो.वो भी ढोलक बजा-बजा कर समधि जी के सात-पुश्तों में पैदा हुए अब तक के सारे मर्दों और औरतों का करेक्टर सर्टिफिकेट एक मिनट में जारी करते हुए
बताती हैं कि

“हे समधी जी.आपकी बहिनिया तो इतनी बड़ी छिनार है कि वो हमारे नाऊ के साथ दो बार फरार हो चूकी है।और आपकी मेहर जब कुंआरी थी तब हमारे कोंहार उनकी काफी देखभाल करते थे..”

अरे ए सखी”..”का हो सखी” ?.सुना है “सरवा की फुआ के तेरह-चौदह इयार थे.इनके मझिला बाबा के रंगीन मिज़ाजी की चर्चा तो विश्वप्रसिद्ध है हो सखी.

मित्रों- गाली देने का ये क्रम चल रहा होता है..इधर कन्या पक्ष के लोग समधी जी सहित उनके रिश्तेदार-देयाद-पट्टीदार को पूड़ी-बुनिया की लगातार सप्लाई कर रहे होते हैं..बेवस्था एकदम चौचक रहती है,खूब पूछ-पूछ कर प्रेम से खिलाया जा रहा होता है.

समधी जी जैसे ही खाना खाकर हाथ धोने को होते हैं..तब गाँव की सबसे बुढ़िया काकी ढोलक सम्भालती हैं..और तार सप्तक के धैवत पर जाकर पूछ ही देती हैं..

“सावन मासे समधी काहे ना आयो जी
कटहर के अधिकाई जी.
आ कटहर के कोवा रउरा एथिया में डलबो
एथिया त खूबे परपराई जी…”

इसका तात्पर्य ये हुआ कि- समधीन जी की हार्दिक तमन्ना है कि समधी जी सावन में एक बार तब आएं जब कटहल पक जाता है..वो समूचे कटहल से निकले कोवा को समधी जी के स्थान विशेष में डालकर उस स्थान विशेष में उतपन्न हो रहे कष्ट का एक बार निरीक्षण करना चाहती हैं..

अब आप यहाँ हंसेंगे..और सोचेंगे कि बाप रे !.ऐसा भी होता है….तो आपको बताऊँ इससे भी ज्यादा अश्लील होता है,जिसे मैं लिख नहीं सकता..

लेकिन आज तक शायद ही किसी समधी ने गाली सुनकर शादी में खाने से इंकार कर दिया हो.

उस समय तो एक साथ बाप-बेटा,भाई,हित-मीत सब गाली सुनते हुए मजे ले लेकर खाना खाते हैं।

अब जिनको अगर ये सब भी अश्लील लगता है..और ये भी लगता लगता है कि गाली देने की रस्म बीच में ही कहीं गलती से पैदा हो गई है,तो इन्हें रामचरितमानस उठाना चाहिए..और देखना चाहिए की अयोध्या से भगवान राम की बारात मिथिला पहुंची है..

राजा दशरथ सहित गुरु वशिष्ठ,विस्वामित्र और तमाम गण मान्य लोग भोजन करने बैठे हैं.तभी मिथिला की नारियां गाली देना शुरू कर देती हैं.यहाँ गोस्वामी जी क्या खूबसूरती से लिखते हैं..

“जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥
समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा”

पता नहीं अन्य भाषाओं में ये परम्परा किस रुप में आज है..लेकिन भोजपुरीया बेल्ट में आज भी गारी सुनने के पैसे देने पड़ते हैं…

सुबह विदाई के समय एक रस्म होती है..गारी गवाई देना. गाली गवाई का रेट यानी गाली सुनने का रेट आजकल पांच हजार एक रुपया हो गया है..गाली के समय ढोलक बजाने वाली अकेले 1100 रुपया ले लेती है.

अच्छा अब जरा सा इधर आइये…इधर कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र मिले थे..नाम है..रघुवर जी… राम जी की दया से नौकरी करते हैं.गाड़ी,बंगला,नौकर,चाकर सब है.लेकिन गाँव आते ही वो उदास हो जाते हैं.

एक दिन बात ही बात में पूछ बैठा “बात क्या है भाई” ? कहने लगे घर आते ही बाबा की कमी बड़ी महसूस होती है..सुबह-सुबह मेरी माँ-बहन और साथ ही मेरे पिताजी की भी माँ-बहन करने वाले उस शख्स की गालियों में भी अतुल भाई एक ऐसा रस था,जिसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता..सुबह हुआ नहीं,सूरज निकला नहीं,उनकी गाली झट से निकलती थी..

घरवा से निकलबs की ना हो तहरी..***

आज उनकी गालियों के कारण ही हम आदमी बन पाए लेकिन बाबा चले गए,उनके साथ वो न जाने कितनी पुरानी गाली चलीं गयीं,उन कर्कश गालियों में छिपा वो उदात्त प्रेम और वात्सल्य चला गया.

अब तो लगता है वो सिर्फ हमारे बाबा नहीं थे.वो गाँव के किसी कोने पर खड़े उस वट वृक्ष की तरह थे..जहां जिंदगी के थपेड़ों से ऊबकर हम सुस्ता सकते थे.

सवाल उठता है कि आखिर हर पल शुचिता और मर्यादा का ख्याल रखने वाले समाज में आज तक साली,साला,समधी-समधिन,बाबा-नाती की गाली-गलौज का क्यों नहीं बुरा माना गया..?

मात्र इसलिए कि इस गाली और अश्लीलता में एक सहजता थी..मर्यादा की एक झीनी सी डोर थी..साली और साले से मजाक अकेले में नहीं किया जाता,अपने हम उम्रों के साथ ही किया जाता है.

बाबा भी अपने नाती को अकेले में गरियातें हैं..वो भी जब समूह में होते हैं तो बताना नहीं भूलते की उनका नाती कितना प्रतिभाशाली है..

इधर समधिन जी शादी में सिर्फ गाली ही नहीं वरन विदाई से लेकर हल्दी,मटकोर,और चुमावन से लेकर नहावन और मांड़ों से लेकर विदाई तक के गीत बड़े मार्मिक तरीके से गाती हैं..गाली देने वाली वहीं समधिन जब कन्यादान के समय गाती हैं..

“दुखवा हरेलू हो बेटी..”

बड़े-बड़े लोग सुनकर रोने लगते हैं..

अब जो आदमी लोक की इस छणिक अश्लीलता की ऊंचाई को समझे बिना वतर्मान भोजपुरी संगीत में फैली अश्लीलता को इसके सहारे जस्टिफाई करता है..तो उसके लिए मैं भगवान से प्रार्थना ही करना उचित समझता हूँ।

लोक की इस अश्लीलता में प्रेम की एक सुवास है.इस अश्लीलता में छिपा रस विभत्स होकर भी श्रृंगार से कहीं ज्यादा आनंद देता है.वहाँ विकार भी एक साहित्यिक गुण हो जाता है..

वहीं वर्तमान भोजपुरी का विरह भी विभत्स हो चुका है….श्रृंगार का तो कहीं नामो-निशान नहीं है..प्रेम गीत तो कभी के मर चूके हैं..

यू टयूब पर भोजपुरी सर्च करिये तो पता चलता है कि गीत-संगीत फिल्म में फैली ये अश्लीलता लोक की सहजता से नहीं वरन दमित कामुकता को भुनाकर जल्दी-जल्दी लोकप्रिय होने की कलाबाजी से पैदा हुई है। जहाँ भोजपुरी के समकालीन गीत-संगीत और सिनेमा वालों ने अपना टारगेट ऑडिएंश बना लिया है.

वो आज बुद्धिजीवियों और समीक्षकों के लिए फिल्म नहीं बनाते,न ही उन्हें टोंरटो और कान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार जीतने की कोई चाह है.

उनको अर्जुन की तरह..यूपी-बिहार के दबे-कुचले शोषित मजदूरों की दमित कामुकता दिख रही है.

तभी “निरहुआ रिक्शा वाला” फिल्म सुपरहिट होती है.कल इसी फिल्म का नाम “निरहुआ हवाई जहाज वाला” कर दिया जाए. तो गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि यही फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप हो जाएगी..

क्या है कि रिक्शा वाला किसी लड़की से चाहकर भी प्रणय निवेदन नहीं कर सकता..रोमांस नहीं कर सकता..एक रिक्शे वाला कम भाड़ा मिलने पर चाहकर भी किसी को मार नहीं सकता.जबकि उसके अंदर भी सुंदर लड़की को देखते प्रेम करने की भावना,गुंडे को मारने की भावना जरूर जाग्रत होती होगी..बस लाचारी बस वो मार नहीं पाता होगा..

वो बेचारा जब फिल्म में जब अपने ही एक बिरादरी के रिक्शे वाले को हीरोइन से प्यार करते,उसे चूमते और गुंडों को मारते देखता है तो उसके अहंकार को तृप्ति मिलती है..उसके भीतर बैठी वो समस्त अतृप्त भावनाएं तुष्ट होतीं हैं.

भोजपुरी का सनीमा,गीत-संगीत अभी इसी स्ट्रेटजी पर चल रहा है।उसने एक खास वर्ग को साध लिया है।

ऊपर से आरोप लगाया जाता है कि लोग बस अश्लील ही देखना चाहते हैं..तो कलाकर क्या करे.. ?

कल ही मैनें एक जगह ये कहा था कि ये भी एक वाहियात सा तर्क है.

एक ही आदमी तीन घण्टे की फिल्म में हीरो-हीरोइन का संवाद देखकर रोमांटिक होता है..वहीं आदमी मां-बेटे का संवाद देखके वात्सल्य से भर जाता है..उसी फिल्म में जब कोई गुंडा किसी अबला की इज्जत पर हाथ डालता है तो गुस्से में उसी आदमी की मुठ्ठी भींच जाती है..वही आदमी किसी करूण संवाद पर रो देता है.

तो फिर कैसे आप कहते हैं कि एक आदमी सिर्फ अश्लील ही देखना चाहता है…?

अगर कोई सिर्फ अश्लील ही देखना चाहता है तो उसे फिल्म देखने की नहीं किसी मनोचिकित्सक के पास जाने की जरूरत है..

आप ये क्यों नहीं कहते की आपने मनोरंजन के नाम पर छिछले स्तर की उत्तेजक शराब ही परोसी है..

प्रेम,वात्सल्य को दरकिनार कर बस काम पर फोकस किया गया है…इसलिए कि हमारे समाज की ऐसी संरचना है कि आदमी आज भी काम का सबसे ज्यादा दमन करता है.

संभोग से समाधि की ओर में ओशो कहते हैं कल से अगर भोजन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाए..तो हमारे गीत-संगीत,दीवार आटे के गीत और चित्रण से भर जाएंगी।

हर भाषा में हर साहित्य में अश्लीलता का अनुपात कम है तो कहीं ज्यादा है..

लेकिन वर्तमान भोजपुरी गीत-संगीत और सिनेमा में अच्छा-बुरा का कोई अनुपात ही नहीं है.यहाँ तो समूचे कुंए में भांग पड़ी है.

बस चिंता इसी बात की होती है..और सवाल उठता है कि आखिर जिस भोजपुरी ने हिंदी के इतने बड़े-बड़े साहित्यकार,फिल्मकार,बुद्धिजीवी पैदा किए उस भाषा में इधर दस-पन्द्रह सालों में कोई दंगल,मैरी कॉम जैसी फिल्में क्यों न बनीं..?

हमारे यहां कोई नागराज मंजुले क्यों नही पैदा हुआ जो कोई सैराट की तरह फिल्म बना सके.

हम भी एस एस राजमौली पैदा करने की कुव्वत रखते थे..लेकिन ऐसा क्या हो गया कि भोजपुरी का समकालीन सिनेमा जिसका इतिहास इतना खूबसूरत रहा हो वो सॉफ्ट पोर्नोग्राफी में बदल गया…

क्या कारण रहा कि अनुराग कश्यप भोजपुरी फिल्म बनाने की घोषणा करते हैं.लेकिन जब फिल्म बनाते हैं तो वो हिंदी में होती है….

इनके कारण हम जब तलाश करते हैं तो वर्तमान के सारे गायक-गायिका अभिनेता-अभिनेत्री इनको बौद्धिक संरक्षण देने वाली बुद्धिजीवी इसके जिम्मेदार मालूम पड़ते हैं..

लोक की गहराई से जुड़ा कोई भी संवेदनशील आदमी जब अपने मातृभाषा के बारे में ये सुनता है..।”बक्क.. भोजपुरी मने तो अश्लील”.

तो साहेब उस सूरत-ए-हाल में उसे बार-बार शर्मिंदा होना पड़ता है। और तब वो खीज उतपन्न होती है जो कभी कल्पना पर फूटती है तो कभी मनोज तिवारी,पवन सिंह,निरहुआ,रवि किशन और खेसारी लाल पर..
बात बस यही है..

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