पिछले दिनों बनारस के आसमान में एक अनजानी सी खुशी फैल गई। देखते ही देखते सामने घाट से लेकर गोदौलिया तक की गलियों के वो सारे कमरे खाली होने लगे, जिनमें कभी तानपुरा की आवाज़ गूंजती थी तो कभी झपताल के रेले बजते थे।
अपने दो सौ साल पुराने घर को गेस्ट हाऊस बनाने का सपना देख चुके उन खूसट मकान मालिकों की आंखें भी चौड़ी हो गईं, जो हर महीने कसम खाते थे कि अब इन गाने-बजाने वालों को घर नहीं देना है।
चाय-पान, कचौड़ी, जलेबी और ठंडई से लेकर भांग का गोला बेचने वाले तक पूछने लगे कि ई गायकवा बुजरो वाले एतना काहें उछलत हौवन गुरु ?
कहतें हैं बनारस की हवा में उछलते इन सवालों का ठीक- ठीक जवाब न किसी मकान मालिक के पास था, न ही किसी दुकानदार के पास।
एक सुबह संकटमोचन मंदिर की बात है।
सात साल से फूल-माला बेचने वाले फूल कुमार ने बीएचयू से एम म्यूज करके पीएचडी कर चुके गायक संदीप सिंह को जीवन में पहली बार मोतीचूर का लड्डू खरीदते देखा और पूछ दिया…
“आज कुछ जादा ही खुश लग रहे हैं गुरु, का बात है ?”
संदीप सिंह ने आधी झड़ चुकी जुल्फों को लहराकर कहा…
“नहीं जानते हैं ?”
“बताएंगे तब तो जानेंगे..!”
“मास्टर बन गए हम !”
“कहंवा गुरु….?”
“बिहार में….म्यूजिक टीचर !”
“मने सरकारी नोकरी न ?”
“एकदम सरकारी..बस तनखाह तनी कम है…”
‘कम बेसी का होता है जी, सरकारी है न..जल्दी से जाके परसादी चढ़ावा गुरु..न त सब बार झड़ जाइत..नोकरी नाई मिलित।
फूल कुमार की बात सुनकर संदीप बाबू ने हाथ जोड़ लिया..
“हं, भइया…हम ग्रेजुएशन किये, पोस्ट ग्रेजुएशन किये, एम.फिल किये, जेआरफ हुआ, नवोदय, केंद्रिय से लेकर असिस्टेंट प्रोफेसर तक, सबका परीक्षा दे-देकर थक गए..और मान लिए कि अब कहीं कुछ नहीं होगा…पर धन्य है बाबा, आज कृपा हो गई। एक पाव लड्डू बढ़ा देंगे का ?”
ये सुनते ही फूल कुमार ने लड्डू क्या फूल-माला तुलसी अगरबत्ती से लेकर कपूर तक सब बढ़ा दिया और बढ़ाते ही एक ऐसा प्रश्न पूछा जो आज तक किसी भी प्रतियोगिता में नहीं पूछा गया था।
“ए सन्दीप बाबू ?
“हं जी”
“तब तो बनारस छूट जाएगा न ?”
ये एक ऐसा लघुउत्तरीय प्रश्न था, जिसका उत्तर बनारस को विदा करने वाले हर विद्यार्थी ने किसी भी किताब में नहीं पढ़ा था।
संदीप बाबू की आंखों की कोर गीली होकर जबाब देने लगीं। मन द्वंद्व के भंवर में फंसने लगा। भावनाओं का ज्वार माँ गंगा के आंचल और बाबा विश्वनाथ की जटा में उतर आया।
याद आने लगा वो दिन..
जब संदीप बाबू बारह साल पहले झोला लेकर कैंट स्टेशन उतरे थे। वो दिन जब उनका बीएचयू में एडमिशन हुआ था। वो दिन जब वो पहली बार हॉस्टल में पहुँचे थे। पहली बार गंगा नहाया था, पहली बार उस गली में किसी का हाथ पकड़ा था..बड़े ही भारी मन से कहा..
“आदमी बनारस छोड़ देता है, बस बनारस आदमी को नहीं छोड़ पाता। घबराइए नहीं, यही सिवान जिला में स्कूल मिला है…हर शनिचर को आएँगे..!”
फूल कुमार ने भारी मन से कहा, “संदीप बाबू, जो बनारस से चला जाता है, ऊ बनारसी बन के नही, टूरिस्ट बनके आता है गुरु.. हम भी यहीं हैं, देखेंगे, आपको महादेव की कसम, बस हमको भूल मत जाइएगा।”
कहते हैं संदीप बाबू संकटमोचन मंदिर से लड्डू चढ़ाकर लौट आए। अगली सुबह ज्वाइनिंग करने की तैयारी थी। रात को ट्रेन पकड़ना था। मन में रवानगी थी..दिल में उत्साह।
कमरे पर आए तो मकान मालिक ने संकटमोचन के लड्डू के साथ तीन हजार रुपये देखकर उनको तीन बार ऊपर-नीचे देखा और अचंभित होते हुए पूछा।
“बड़ा जल्दी किराया दे दिए बाबू ?”
संदीप बाबू ने कहा, “कमरा खाली कर रहें हैं अंकल..अब कोई आधी रात को रियाज करके आपकी नींद खराब नही करेगा…”
इतना सुनते ही हर महीने कमरा खाली करने की धमकी देने वाले अंकल न जाने क्यों दुःखी हो उठे।
“ए संदीप बाबू…गाने-बजाने वाले तनिक हल्ला तो करते हैं लेकिन किसी से बत्तमीजी नही करते। जाइये बबुआ याद आएँगे आप…”
संदीप बाबू ने अंकल को नमस्ते किया.. सारा सामान और दस साल की सारी स्मृतियों को दो-चार बोरी और बैग में समेटकर बाबा विश्वनाथ को शीश नवाया और अगली सुबह आ गए..जिला सिवान..
सुदूर एक गाँव…आते ही देखा..
सड़क यहां टूटने के लिए बनी है। बिजली यहां जाने के लिए आती है..लोग यहां मरने के लिए जीते हैं..स्कूल यहाँ बच्चों को पढ़ाई से दूर करने के लिए खोले गए हैं।
स्कूल की हालत देखते ही बीएचयू से ली हुई पीएचडी की डिग्री हंसने लगी। दस साल तक बड़ा ख्याल, ध्रुपद, धमार, और ठुमरी का किया गया रियाज अट्टाहास करने लगा।
संगीतशास्त्र के वो गूढ़तम सूत्र रोकर पूछने लगे…
“ए संदीप बाबू…बे महराज…इतना पढ़-लिखकर इहाँ पढ़ाएंगे ? न जहां कायदे का एक कमरा है, न बैठने की जगह ? इहां पर ?’
संदीप बाबू अभी रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके सोच ही रहे थे तब तक उस गाँव के मुखिया जी आ गए।
प्रिंसिपल साहब ने परिचय कराया। मुखिया जी ने संदीप बाबू का गहन निरीक्षण किया और पूछा..
“अच्छा तो मतलब अब यहां नांच-गाना का भी पढ़ाई होगा..है न ?”
प्रिंसिपल साहब ने सफाई देते ही कहा..”अरे सर, हमारे विद्यालय में संगीत था, बस अध्यापक नहीं था,अब नीतीश कुमार, तेजस्वी जी ने भेजा है तो ललकार के संगीत का पढ़ाई होगा। अपने स्कूल से भी कोई खेसारी और कोई निरहुआ निकलेगा, का जी सर ?”
संदीप बाबू ने सर पीट लिया और पूछा, “सर, इसमें संगीत का कमरा कहाँ है ?”
प्रिंसिपल ने कहा, “पूरा स्कूल आपका है सर.. जहाँ मन करे कमरा बना लीजिये..जाइये।”
संदीप बाबू ने देखा स्कूल में बस तीन ही कमरा है…इसी में पूरा स्कूल है…कुछ देर सोचकर पूछा..”सर कुछ साज-बाज है, बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे…? “
प्रिंसिपल साहब ने कहा, “अभी त बजट के बिना खुद ही हम झुनझुना बजा रहें हैं। तब तक गाना-वाना गवाकर, नचवाइये-कुदवाईये, उ कौन सा गाना आजकल रील में चला है..महरून कलर सडीया… हम भी एक रील बनाए हैं उस पर…बाकी…साज-बाज का हम देखते हैं।”
इधर सामने बैठे मुखिया जी की समस्या न स्कूल की इमारत थी, न ही साज-बाज का बजट, न ही महरून कलर सड़िया..उनकी समस्या कुछ और थी.. उन्होंने संदीप जी से पूछा..
” ए संदीप जी, संदीप सिंह मतलब ?”
संदीप जी फट से बोले…
“जी, संदीप मतलब मशाल…जलता हुआ मशाल..!”
मुखिया जी ने कहा, “उ थोड़े पूछ रहे हैं, कास्ट कौन है आपका ?
संदीप बाबू सकपका गए..ये एक ऐसा सवाल था जिसके लिए वो तैयार न थे। बड़े ही शालीन अंदाज में कहा…
“टीचर से जाति नहीं पूछा जाता है। ऊपर से हम कलाकार…संगीतकार का कोई जाति नही होता।”
मुखिया जी नहीं माने….”मतलब कुछ तो होगा ही…बताइये न…?’
संदीप बाबू ने उस दिन टाल दिया और क्लॉस लेने चले गए।
ठीक अगले दिन गाँव के एक बड़े ही सम्मानित व्यक्ति शर्मा जी को लेकर गांव के मुखिया जी कार्यालय में उपस्थित हुए। मुखिया जी ने शर्मा जी से कहा, “इनसे मिलिए संदीप बाबू हैं, संगीत के नए अध्यापक..बलिया जिला घर है जी…”
शर्मा जी ने संदीप बाबू को गौर से देखा और पूछा..
“ए संदीप बाबू..आपके पिताजी का पूरा नाम का है ?”
संदीप बाबू ने कहा,”जी उनका नाम शिवजी सिंह है।”
“और बलिया में आपका गाँव कौन सा है ?”
“जी बलरामपुर…”
“बाबू साहब लोगों का गाँव है का ?”
संदीप बाबू ने कहा, “ऐसा तो नहीं, हर जाति के लोग मेरे गांव में हैं।”
शर्मा जी मन मसोसकर बोले.. “आप लोग का शादी बियाह तो बाबू साहब लोगो में ही होता होगा न ?”
संदीप बाबू के दिमाग और क्लास दोनों की घण्टी लग गई। उन्होंने इस प्रश्न के उत्तर में चुप रहने का फैसला किया..और उठकर चले गए..शर्मा जी लजा गए..और धीरे से बोले..
“नही,मतलब, सिंह तो बाबू साहब भी लिखता है, कुर्मी भी औऱ भूमिहार भी..तनिक क्लियर करना चाहते थे।”
संदीप बाबू ने एक गहरी सांस लेकर कुर्सी से उठे औऱ सीधे क्लॉस जाकर ही रुके।
इधर मुखिया जी ने आंख तरेरकर कहा, “ई संदीपवा त बड़ा बदमाश मास्टर है ए प्रेन्सपल साहब..ससुरा के पास तमीज नही है…”
प्रिंसिपल ने कहा, ” ए मुखिया जी…हमको तो बाबू साहब लग रहा आपको कवन जात लगता है ?
मुखिया जी ने कहा, “न न, बाबू साहब नही, पक्क़ा भूमिहार है..शकल से चालू लगता है साला।”
शर्मा जी बोले..”न..न..लिख लीजिये कुर्मी है। उ बगल वाला कुर्मी है, न जो बैंगन बोता है, उसी से हंस-हंसकर बतिया रहा था। अरे ! एक दिन सारा कागज पत्तर मांगिये न, किलियरे हो जाएगा।”
छह महीने से अधिक हो गए…कहते हैं…बीएचयू से गायन में पीएचडी करने वाले संदीप बाबू की जाति पर पीएचडी आज तक चल ही रही है।
आज भी पूरे गाँव को इस बात कि चिंता नही है कि संदीप बाबू को संगीत का ज्ञान कितना है ? कितना पढ़ा है संगीत रत्नाकर, कितना जानते हैं नाट्यशास्त्र को ?
कौन-कौन सी सुविधा दी जाए तो संदीप बाबू हमारे बच्चों को बेहतर संगीत सीखा पाएंगे..
चिंता इस बात की है कि संदीप बाबू बाबू साहब है, भूमिहार हैं कि कुर्मी हैं ?
ताजा समाचार तक संदीप बाबू दुःखी थे। अपने मुम्बई बैठे एक लेखक दोस्त से ये कहते हुए लगभग रोने लगे…
ए अतुल, तुम ठीक किये फारम नही भरे बे…हमरा मन कर रहा छोड़ दें हम..बनारसे ठीक था..कभी-कभी तो मन ही नहीं लगता है हमारा..ऐसा लगता है, साला कहाँ आ गए.?”
यहां राग और ताल की जाती जानने से ज्यादा इस समाज को टीचर की जाति जानने में रुचि है।
लेखक ने संदीप बाबू को दिलासा देकर लिखा है…
ई दोगला समाज है संदीप बाबू..ये सोशल मीडिया पर मनुष्यता, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, पढ़ाई, रोजगार की बड़ी-बड़ी बात करता है लेकिन वोट देने जाता है तो अपनी जाति के नेता को देकर आ जाता है और पाँच साल रोता है
इस समाज के लोग अब एक अध्यापक को उसके ज्ञान से ज्यादा उसकी जाति का ज्ञान रखने में रूचि न लेंगे तो कौन लेगा ?
और ये समस्या बस गाँव की नही है भाई.. दिल्ली से लेकर गांव तक सब जगह कुंए में जातिवादी भांग पड़ी है। समानता का झंडा ढोने वाले तमाम प्रोफ़ेसरों का कोई रिसर्च स्कॉलर आज तक कोई दलित नही बना है।
वो तमाम प्रगतिशील पत्रकार बिहार जाकर सबसे पहले यही पूछते हैं कि कौन जात हो ? इसके आगे वो बढ़ नही पाए हैं।
ये तो फिर भी गाँव के लोग हैं..इनका का दोष है ?
इसलिए हे संदीप….तुम जाति जनवाने और जानने की कभी चिंता न करना।
तुम चिंता करना उन मासूम आंखों की, जो कॉन्वेंट न जा पाने के अभाव में तुम्हारे आगे रोज बैठती हैं। औऱ भारी उत्साह से देखती हैं तुम्हारी तरफ.. किसी उम्मीद में।
उन उम्मीदों को धूमिल मत होने देना।
उनमें वो लयात्मक संस्कार भरना ताकि आगे से वो किसी अध्यापक से उसका ज्ञान जानने की कोशिश करें….उसकी जाति नहीं।
ये लोकसभा-विधानसभा के चुनाव होंगे, नेता-मुखिया आएंगे-जाएंगे..जाति जानने की सरकारी ड्यूटी क़ल तुम्हारे कंधे भी आएगी… लेकिन एक विद्यार्थी भी ऐसा निकल गया जिसको अध्यापक की जाति जानने में रुचि नही है उसका ज्ञान जानने में रुचि है तो जागरूकता की मशाल जल जाएगी संदीप।
इस समाज को बेहतर तुम्हारे जैसा अध्यापक ही बनाएगा, न कि कोई नेता और न ही कोई पत्रकार।
तुम्हारा
अतुल
मुंबई से…