एक मित्र बड़े परेशान रहते थे कि नौकरी नहीं है और जिम्मेदारी चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ रही है। बाल पक गए,शादी न हुई,घर भी नहीं बना,सब डिग्री और योग्यता माटी में मिली जा रही है।
मित्र दिन-रात मेहनत करते।शहर के सभी मंदिरों में दीप और धूप जलाकर नौकरी की माला जपते।
उम्मीदों का रोज एक सपना आता। भविष्य की मीठी धुन आंखों के सामने नाँचने लगती।
लेकिन हुआ कुछ नहीं…रिजेक्शन पर रिजेक्शन और लगातार रिजेक्शन।
एक वक्त ऐसा भी आया जब मित्र ने सोचा कि अब इस ज़िंदगी से अच्छा है की इहलीला समाप्त कर ली जाए।
मित्र मरने के लिए तैयार थे। समय,स्थान,तरीका,सुसाइड नोट सबका इंतजाम कर लिया..जिनसे प्रेम था उनसे खूब बातें कर लीं,जो-जो खाने में पसंद था वो भी खा लिया। और एक सांझ जब घर पर कोई नहीं था.. मोहल्ले में भी वीरानी छाई थी..की मित्र नें आंखों में आंसू लेकर उपर चल रहे पँखे को देखा..
तभी अचानक फोन की घँटी बज गई। नम्बर कोई नया था। उधर से किसी षोडश वर्षीया कन्या की खनकती आवाज़..
“मुबारक हो आप सलेक्ट हुए हैं”
मित्र फूलकर कुप्पा..बाप रे! इतनी खुशी..मानों जेठ की जलती दोपहरी में आज गलती से मानसून आ गया हो। हे भगवान कहाँ थे इतने दिन।कितना ज़लील और इंतजार कराया।अब तो डेढ़ साल तक सोमवार का व्रत रखूँगा.. जय हो बाँके बिहारी।
फिर क्या था…अड़ोस-पड़ोस में खूब मिठाई बांटी गई..दूर-दूर के रिश्तेदारों को खबर दी गई कि “फूफा जी प्रणाम बबुआ हमारा अफ़सर बन गया”
इधर मित्र ने भी बेहिसाब मन्नतों को पूरा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। दोस्तों के सामने देश,दुनिया और समाज को चुटकी में बदल देनें की कसमें भी खाईं ।
लेकिन आज तीन साल बाद उसी मित्र से पूछो-
“क्या चल रहा है मित्र..अब तो सब बढ़िया है न” ?
मित्र किसी बासी हो चुकी जलेबी जैसा मुँह बनाके,महंगाई की तरह बढ़ रहे अपने पेट पर हाथ रखते हैं और किसी बुझे हुए चिराग़ जैसा बोल देते हैं-
“वही नौकरी अतुल भाई..और क्या होगा.. ? ज़िंदगी बेचकर जीने का सामान खरीद रहें हैं।”
इधर आइये जरा…..एक और मित्र थे। सुमित कुमार जी उपाध्याय..पांच फीट सात इंच,रंग सांवला,दो बार हाई स्कूल,तीन बार इंटर,एक बार बीए और दो बार एमए करने के साथ बार-बार प्यार कर चूके थे।
लेकिन कमबख्त..कालेज में लड़कियाँ क्या ट्रेन में हिजड़े भी भाव नहीं देते थे।
जीवन में दूर-दूर तक प्रेम की सुवास न थी। सपनों की हवेली में सूनापन का शोर था।
मित्र ने मार्किट में उपलब्ध सभी क्रीम को दिन भर में तेरह बार गालों पर लगाकर ट्राई कर लिया,सभी पोज में फ़ोटो खिंचवा के फेसबुक पर लगा लिया,बॉडी बिल्डिंग और पर्सनाल्टी डेवलपमेन्ट के न जाने कितने सेशन अटेंड कर लिए। “पाँच मिनट में लड़की पटाएँ” और “कैसे करें किसी को इम्प्रेश” टाइप किताबें भी पढ़ लिए।
लेकिन वही ढाक के तीन पात..किसी नाज़नीं का दिल न पसीजा।
तीस साल तक आते-आते भी सुमित बाबू निहायत ही सिंगल लौंडे रहे।
देखते ही देखते खूबसूरत लड़कियों ने उनकी जिंदगी ने इतना चरस बोया कि अरिजीत सिंह के रोमांटिक गानों से भी अल्ताफ़ राजा की फिलिंग आने लगी ।
दीदी और भैया कहते-सुनते कान पक गए। जीवन अपने बत्तीसवें साल में एकदम घुप्प अंधकारमय हो गया।
गालों में तेरह बार हाय! हैंडसम लगाने,जिम में बॉडी बनाने,और स्पॉ,स्क्रब लेते-लेते उनके बाल इस कदर पकने लगे कि फेसबुक की एंजेल प्रियाएँ भी इनबॉक्स में चाचा जी नमस्ते कहनें लगीं।
कहतें हैं मौसम ने अंगड़ाई ली..फरवरी के वो हसीन दिन आए.. हवाएं,बादल,जमीन और आसमां एक साथ मिलकर प्रेम के मीठे तराने छेड़ बैठे।
तभी एक दिन दुर्घटना हुई..वो रोज डे का दिन था। आफिस वाली नेहा ने मुस्करार कहा “आज आप मुझे घर छोड़ देंगे क्या सुमित।” ?
हाय! राम उस दिन सुमित बाबू को पता चला कि झोंटा बढ़ाकर प्रेम कविताएं लिखने वाले वो कवि,और डफली बजाकर प्रेम गीत गाने वाले वो गायक कत्तई पागल नहीं होते हैं..कुछ मौसम और कुछ इन हसीनाओं का असर भी होता है।
फिर क्या सुमित बाबू भी दिन रात..नेहा वो नेहा,तुम कब मिलोगी नेहा के गीत गाने लगे।
मितरों- कहते हैं..दिल से चाहो तो क्या नहीं मिलता..काली-डीह बाबा की नज़र घूम गई। चौदह फरवरी आते-आते नेहा जी से लव यू,लव यू होने लगा।
बात चाय कॉफी,पिज़्ज़ा से होकर सोना,मोना,स्वीटी हनी,और हनीमून तक होने लगी।
प्री वेडिंग शूट के लिए ब्यूटी पार्लर और जिम जाने का टाइम फिक्स किया जाने लगा।
भगवान की फिर किरपा बरसी…अप्रैल आते-आते नेहा जी से सुमित बाबू की शादी भी हो गई।
दो साल हो गए..अब सुमित बाबू से पूछो..
और भइया…”नेहा भाभी कैसी हैं.हो आए मनाली ?..
सुमित बाबू इसी बात पर बात इस अंदाज में बदल देते हैं। मानों शादी करके ऐसा गुनाह कर दिया है कि अब मौन रहकर उसका प्रायश्चित करना जरूरी है।
अब यहाँ आ जाइये..एक और हमारे परिचित थे। शर्मा जी। जीवन में बड़ा सँघर्ष और खराब दौर का सामना किया था शर्मा जी ने।
पिता बचपन में चले गए,मां जवानी में,घर का कोई आसरा नहीं। पहले जैसे तैसे खुद पढ़ा फिर भाई और बहनों को पढ़ाया..
पहली नौकरी मिली तो हाल वही हुआ कि नँगा नहाए क्या और निचोड़े क्या..। वेतन और खर्च का अनुपात इस कदर असंतुलित था कि दस रुपये बचाने के लिए दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।
समय बीतता गया…एक साल,दो साल तीन साल,शर्मा जी के साथ वाले पैदल से बाइक और बाइक से कार पर शिफ़्ट हो गए लेकिन शर्मा जी पंचर टायर की तरह वहीं का वहीं पड़े रहे।
लेकिन कहीं न कहीं उनके मन में एक कसक रहती कि काश उनके पास भी एक कार रहती तो कितना आराम हो जाता। वर्मा जी और तिवारी जी की तरह झट से जहां मन करे वहाँ पहुँच जाते।
वो भी सरदार जी की तरह वीकेंड का डिनर शहर से बाहर करते। खन्ना साहब की तरह सन्डे को लांग ड्राइव पर जाते और झा जी की तरह हर दूसरे महीने एक ट्रिप प्लान करते।
इस हसीन सपने के साथ शर्मा जी ने एक से डेढ़ साल गुजार दिया..हर महीने कार लेने की सोचते फिर मुन्ना की फीस, तीन-तीन ईएमआई को देखकर मिज़ाज बदल लेते ।
फिर एक वक्त आया जब मुन्ना की नौकरी लग गई..शर्मा जी ने उसी दिन राहत की सांस ली..दिन मंगलवार था.. सुबह उठते ही शर्मा जी ने बजरंग बाण का तीन बार पाठ किया और अपने खास मित्रों को को लेकर टेस्ट ड्राइव करने निकल पड़े।
शर्मा जी ने जबरदस्त कार खरीदी..मोहल्ले में बड़ी तारीफ हुई..सब शर्मा जी की नई कार की तारीफों में पुल बाँधते..”सब फेल शर्मा जी सब फेल है.भाई शर्मा जी की सेंट्रो बीएमडब्ल्यू पर भारी है”।
आज दो साल बाद उन्हीं शर्मा जी से पूछो..
“शर्मा जी पैदल.. आपकी कार क्या हुई..”?
तो भाई..जिस शर्मा जी की आंखें कार नामक शब्द सुनते ही एलईडी बल्ब की भांति चमक उठतीं थीं अब वहीं शर्मा जी का हाल फ्यूज बल्ब की तरह हो गया है।
देर तक कुरेदो तब जाकर कहते हैं..”कुछ नहीं होगा क्या..पैदल चलने से स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और नींद भी अच्छी आती है।”
मित्रों- ये कोई कहानी नहीं है,न ही वो नौकरी पाने वाले वो मित्र,प्रेम विवाह करने वाले वो सुमित बाबू,और कार खरीदने वाले वो शर्मा जी मंगल ग्रह पर रहते हैं।
ये तो हमीं और आप हैं..
बस कहना यही था कि शिद्दत से चाहो तो जिदंगी देर सबेर सबको नौकरी,प्रेम,कार,और घर सब दे देती है।
लेकिन वो पहले वाला उत्साह,जूनून और शिद्दत जो बचा लेता है,वो जिंदगी में जिंदगी को बचा लेता है। जो ये खो देता है,वो सब खो देता है.