हँसी-खुशी हो ली…

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बाहर का मौसम बदलते ही मन का मौसम भी बदलने लगता है। इन दिनों खिड़की खोलते ही ताजी हवा जादू जैसा काम करती है और देखते ही देखते चित्त में बैठी धूल साफ़ होने लगती है। समुद्र से आती इस नमकीन हवा में भी एक बसंती स्पर्श है।

जब-जब एक छटाक धूप बिस्तर के पास आती है..तब-तब ऐसा लगता है कि सूरज नें हमें कोई संदेश भेजा है और कहा है कि धरती पर बसंत आ चुका और तुम अभी तक सोए हो। देखो,सब बौराये हैं,आम,महुआ, पीपल,चना,मटर और सरसों..तुम कहाँ गुम हो..

लेकिन  सुबह आठ बजे से लेकर देर रात तक काम करने वाले आदमी को कहां होश  है कि वो आँख बंद करके हवा में बह रहे बसंती स्पर्श को महसूस करे…!

हमें तो मानसिक रूप से थका देनी वाली दिनचर्या और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव नें बाहर देखने लायक ही नहीं छोड़ा है।

अभी मैं जिस ऑटो में बैठकर अभी मुम्बई की सड़कों पर जाम में फंसा रहा हूँ,उस जाम में भी अस्सी प्रतिशत लोग अपना मोबाइल ही देख रहे हैं। सिवाय मेरे ड्राइवर साहब के। ड्राइवर साहब मेरे सामने ही रहते हैं। 

अनियोजित तरीके से बसी एक ऐसी जमीन में उनका घर है जिस पर अभी तक भगवान की कृपा से रियल स्टेट वालों की नज़र नहीं गई है।

फिलहाल ऑटो चल रही है और मैं उनसे पूछ रहा हूँ कि आप स्मार्टफोन क्यों नहीं रखते..? कम से कम यूपीआई से पेमेंट करने में हमारे जैसे लोगों को आसानी तो रहेगी।

वो मुस्कराते हैं..लेखक बाबू, आंख के आगे पर्दा डालने से डर लगता है हमें। हम ठहरे चिट्ठी के जमाने वाले आदमी। इंटरनेट नही था तबसे ऑटो चला रहे हैं। भगवान नें उस समय भी पार-घाट लगा दिया,अभी भी लगा देंगे।

मैं उनको ऑनलाइन ट्रांजेक्शन के फायदे बताता हूँ। बताता हूँ कि इसने हम सब की ज़िंदगी कितनी आसान कर दी है। लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हैं। सामने देखता हूँ जाम और ज्यादा लग चुका है।जमीन से लेकर आसमान तक धूल और शोर का बवंडर उठ रहा है। जो जहां खड़ा है वो जाम से उबकर अपने-अपने मोबाइल में घुस चुका है। ऑटो वाले भाई साहब चुप-चाप इस सड़क के शोर को देखते जा रहे हैं। कुछ देर बाद मन में प्रश्न आता है..

आपको क्या कभी मन नहीं हुआ कि मैं भी एक कार ले लूं।
वो मुस्कराये.. कहने लगे कार वाले भी तो जाम में ही फंसे हैं। ध्यान से देखिये..

मैं उनकी इस हाजिरजबाबी से मुस्कराता हूँ और अगला सवाल फिर होता है।

फिर भी बीस साल से ऑटो चलाने का क्या फायदा की आप आज तक कार नहीं ले पाए…सब बेकार हो गया आपका जीवन।

वो हंसते हैं। आपको क्या लगता है जिसके पास कार नही उसका जीवन बेकार है। ये कैसी समझ है आपकी लेखक बाबू..?

मैं थोड़ा झेंपता हूँ। अरे नही चचा आप समझ नही रहे,मैं तो ये कहना चाहता था कि बीस साल में कार खरीद लेना चाहिए था नही तो मुम्बई में रहने का फायदा ही क्या है।

वो मेरी बात काट देते हैं। लेखक बाबू आपकी उम्र कम है अभी। मेरी बात आप अभी नहीं समझ पाएंगे

मुझे उनकी इस बात पर एक स्वभाविक आवेश आता है,जिसमें कहीं न कहीं सेंट्रल यूनिवर्सिटी से मास्टर्स करने  का एक छिपा हुआ अहंकार भी शामिल है। मैं पूछ बैठता हूँ। ये बताइये जरा कितने तक पढ़ाई की है आपने…?

ड्राइवर साहब,जाम से निजात पाकर गेयर धड़ाधड़ बदलते हैं। सड़क पर लोगों की स्पीड काफी तेज हो गई है। देख रहा हूँ हर आदमी एक दूसरे को पीछे करके आगे निकल जाना चाहता है। ड्राइवर साहब बोलते हैं..आप खुद को कितना पढ़ा लिखा मानते हैं?

मैं अपनी ली हुई एजुकेशन का बखान करता हूँ.. वो शाबाशी देते हैं और झट से कहते हैं,अच्छा.. भैया, मैं तो आठबी तक ही पढ़ा हूँ। अब बताइये,क्या आप एजुकेशन और कार से आदमी को तौलेंगे ? ये कहाँ की पढ़ाई हुई ?

मैं निरूत्तर हूँ। अचानक ऑटो मे ब्रेक लगती है और हम अपनी मंजिल आ जाते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि कोई गलती हो तो माफ करिएगा। बाकी सुबह फिर मिलते हैं।

अगले दिन कई सुबह तक मुलाकात नही होती है। मैं न उनको खोजता हूँ न ही वो मुझे खोजते हैं। किसे ख़बर है…

लेकिन कल आधी रात ग़जब हुआ। देख रहा, सामने वाली अनियोजित बस्ती से ढोलक झाल की आवाज़ आ रही है…और किसी नें जोर से गाया है, शिवशंकर खेलत फाग..

मैं अपनी स्क्रिप्ट लिखना छोड़कर खिड़की पर आ जाता हूँ। ढ़ोलक झाल औऱ कोरस से निकलती आवाज़ मुझे सीधे मेरे गांव के शिव मंदिर तक लेकर जा रही है।

सुबह पिताजी को फोन करता हूँ। पहला सवाल यही होता है, फगुआ गवाता कि न ? पापा निरुत्तर हैं। कहते हैं,किसी के पास समय कहाँ। सब शादी ब्याह और अपनी दिन-दुनिया में ऊलझ चुके हैं। कोई नही गाने वाला.. मैं फोन रख देता हूँ।

अब उसके ठीक एक दिन बाद की साँझ है। 8 बज रहे है। आख़री चाय पीने की एक तलब जगती है। मैं अपनी बिल्डिंग के ठीक सामने वाली चाय की दुकान पर बैठकर इंतज़ार करने लगता हूँ…तभी ऑटो वाले भाई साहब अपने पांच दोस्तों के साथ मुस्कराते हैं। चलिये हम लोग होली गा रहे हैं। सुनिएगा बैठकर..!

मैं कहता हूँ मुझे कुछ काम है,उसे करके देना ज़रूरी है। वो मुस्कराते हैं। लेखक बाबू इसलिए मैनें ज्यादा पढ़ाई नही की  कि कहीं आपके तरह कार औऱ घर के चक्कर में ये जीवन बेकार न हो जाए।

मैं निरुत्तर हूँ और उदास भी। मेरे पास कहने को कुछ बचा नहीं है। चाय पीकर चुप-चाप कमरे में लौट आता हूँ। दो घण्टा बीतते ही चारो ओर शांति हो जाती है। देखता हूँ फिर वो आवाज गूंजने लगी है। बहुत सारे अपरिपक्व गायक एक साथ गाये जा रहे हैं। ढोलक झाल औऱ गीत मिलकर मुम्बई के इस इलाके में गांव के शिवाला को जीवंत कर रहे हैं।

और मैं हठात खड़ा हूँ। खुद को कोसता,एक अपराधबोध को महसूसता कि क्या मैं ज़िंदगी की रेस में इस कदर खो गया हूँ कि ढोलक झाल की आवाज पर रुक जाने की हिम्मत नही है ? फिर मन ही मन तय होता है नही अगले दिन पक्का उनके साथ जाऊंगा,मन ही मन माफी मांग लूँगा कि आप लोग हमसे कहीं ज्यादा जीवंत औऱ सुशिक्षित हैं। जिसे पता है कि बिना कार घर औऱ भौतिक संसाधनों के भी कैसे खुश हुआ जा सकता है। 

आप होली आने के पहले ही हँसी औऱ खुशी खोजने का सूत्र जानते हैं,आप ही साक्षर हैं..हम ही निरक्षर रह गए हैं।

क्या कहूँ..ध्यान से देखने लर कई बार यही लगता कि हमारा जीवन बाज़ार चला रहा है हम नहीं। हमारी सारी लड़ाई एक बेहतर खरीदार बनने की है। हमारी सारी खुशियाँ उसी खरीदारी की मोहताज़ हैं।

लेकिन मुझे आज लगा है कि इस भागमभाग भरी दुनिया में खुश होने के लिए आप भारी अगर पैसे खर्च नही कर रहे हैं तो आप सबसे बड़े साक्षर हैं।

होली का आगमन,बसंत का प्रभाव आपको वही मौका देता है। साक्षर बनने का मौका… उमंग और उत्साह के रंग को महसूस करने का मौका। 

अतुल           

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संगीत का छात्र,कलाकार ! लेकिन साहित्य,दर्शन में गहरी रूचि और सोशल मीडिया के साथ ने कब लेखक बना दिया पता न चला। लिखना मेरे लिए खुद से मिलने की कोशिश भर है। पहला उपन्यास चाँदपुर की चंदा बेस्टसेलर रहा है, जिसे साहित्य अकादमी ने युवा पुरस्कार दिया है। उपन्यास Amazon और flipkart पर उपलब्ध है. फ़िलहाल मुम्बई में फ़िल्मों के लिए लेखन।