एक पप्पू की प्रेम कथा (मेला स्पेशल )

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आज प्यार भले  फेसबुक से पैदा होकर whtas app पर जवान हो जाय..
लेकिन किसी जमाने में कालेज के सामने वाली चाट की दूकान से शुरू होकर  दशहरा के मेला वाली जलेबी की दुकान पर ही मंजिल पाता था।….

शायद प्यार की मंजिल पाने वालों के साथ ट्रेजडी थी..क्योंकि प्यार के साथ टेक्नोलॉजी का गठबंधन न हुआ था ।लाइक,कमेंट,शेयर जैसे शब्दों की मौजूदगी  का एहसास इतना व्यापक न था.

तभी तो कभी पप्पू अपनी पम्मी को खत लिखता.

“सुनो पम्मी..दुर्गा जी के मेला में आवोगी न सिकन्दरपुर ? पिंकी भी चोन्हाकर जबाब दे देती

“हाँ आएंगे..आएंगे क्यों नहीं..बाकी मेला में  पीछे-पीछे मत घूमना उल्लू की तरह…..कुछ समझ में आता है कि जलालीपुर से ही पीछे पड़ जाते हो…आ स्टेशन तक घूमते रहते हो पागलों की तरह…मेरी बुआ आ मौसी जान गई न तो मेरी इज्जत का ईंधन जल जाएगा..”

अब लिजिये उस बकत पप्पू के दिल में तबला और सितार की मीठी-मीठी युगलबंदी होने लगती…मन में लड्डू नहीं  रसगुल्ले फूटने लगते..”आह पांच महीना बाद तो पम्मी को देखेगा”..उहे इंटर के इम्तेहान में गांधी इंटर कालेज में नकल करवाने गया था…इस बार तो सज संवरकर मेला में आएगी..आहा!..कितनी अच्छी लगेगी न…?
ऊँगली पर दिन गिनते गिनते  इंतजार की घड़ी समाप्त होती थी।

अब एक साल बाद मेला आ गया.. दुर्गा जी के पंडाल सज गए…

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बड़े बड़े लाउडस्पीकर से “चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है” बजने लगा…
झूले ,ठेले,खोमचे से लेकर चरखी आ चौमिंग डोसा,छोला से लेकर गुरही जिलेबी तक की दुकाने सज गयीं… बच्चे घर वालों से पईसा के लिए झगड़ा करने लगे…लीलावती,कलावती भी मेला से चूड़ी आ नेल पालिस खरीदने के लिए बेचैन हो गयीं…कई सिंटूआ आ मंटुआ त  चुराकर घर का गेंहू तक बेच दिए..

आगे पता चला पम्मी,… नेहवा और मिंटीया के संग मेला देखने आ गयीं..उधर लीलावती की सखी संगीता पाँच साल बाद मेला में अचानक भेंटा गयी..ससुरा जाने के बाद केतना मोटा गयी है संगीता..लीलावती देखकर अपनी बचपन की सखी को  खूब हंसती आ ताना भी देती…”बहुत ज्यादे प्यार करते है का रे जीजाजी ?”…मने  दू घण्टा खूब बतकही होता है..

पप्पू भी अपनी प्यारी-प्यारी पम्मी के पीछे-पीछे पागलों की तरह घूमता ।
इसी बीच  पम्मी को छोला खाने का मन  हुआ….वो खाने भी लगी…
पता चला वो अभी खा ही रही है तब तक पप्पू भाई का परेम फफाकर पसरने लगा.. वो दुकानदार के पास गए आ ताव देकर कहा…”सुनो हउ जो हरियर दुपट्टा वाली है न..उससे पैसा मत लेना…”
दुकानदार भी समझ गया कि  इ लभेरिया के मरीज हैं सब लोड लेना ठीक नहीं।”

लेकिन साहेब अब समय बदला है…
अब भी पंडाल सजे हैं…अब भी लोग-बाग़ आ रहें हैं…भीड़ भी कम न हुई है…
आस्था और टेक्नोलॉजी का अद्भुत संगम दिख रहा है…..भक्ति ऑनलाइन हो चुकी है…
“चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है” कि जगह “आज माता का मुझे ईमेल आया है” बजने लगा है…

और कई पम्मीयों  ने अपने-अपने  पप्पूओं  से whats app पर कह दिया है..”बक…हम मेला में नहीं जायेंगे…बहुत डस्ट उड़ता है..अभी सात सौ लगाके फेशियल करवाएं हैं.. और तो और बहुत इरिटेशन हो रहा आजकल मुझे क्राउड से…छोड़ो ये सब बकवास मेला..फ्राइडे को आईपी मॉल में मूवी देखतें हैं…मैंने बुक माय शो पर टिकट भी ले लिया…”

अब आप क्या किजियेगा..कपार पिटियेगा..?
या पम्मी और पप्पू का दोष दिजियेगा..अरे ये उनका दोष नहीं….. ये ऑनलाइन समय का दोष है…घर बैठे मैकडोनाल्ड से बर्गर आ पिज़्ज़ा हट से पिज़्ज़ा माँगने वाली  और एमेजॉन,फ्लिपकार्ट और स्नैपडील पर खरीदारी करने वाली पीढ़ी को अब ये मेले,ठेले,छोले,जलेबी रास नहीं आ रहे.

वो नहीं जानते की  ये मेले सिर्फ सामानों की खरीदारी करने के लिए नहीं हैं….
ये तो हमारी परम्परा में बसी उत्सवधर्मिता के प्रतीक हैं….ये हर महीने आने वाले त्यौहार बताते हैं कि जिंदगी रंज-ओ-गम से ज्यादा जश्न है….आदमी यहाँ आकर रिचार्ज होता है.

अरे मेले वाली जलेबी का स्वाद मैकडोनाल्ड और पिज्जा हट वाले कभी दे पायेंगे क्या?

mela,मेला,

 

न ही  whtas app और फेसबुक पर पप्पू को वो  प्यार में रोमांच आएगा जो मेले में पम्मी के पीछे पीछे  घूमने में आता था.

आदमी भूल रहा शायद की घर बैठे ऑनलाइन सब कुछ मिल सकता है लेकिन बहुत कुछ नहीं मिल सकता.. वहां सामान ही मिल सकता है..मेला नहीं..पिज्जा मिल सकता है इमोशन नहीं….

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संगीत का छात्र,कलाकार ! लेकिन साहित्य,दर्शन में गहरी रूचि और सोशल मीडिया के साथ ने कब लेखक बना दिया पता न चला। लिखना मेरे लिए खुद से मिलने की कोशिश भर है। पहला उपन्यास चाँदपुर की चंदा बेस्टसेलर रहा है, जिसे साहित्य अकादमी ने युवा पुरस्कार दिया है। उपन्यास Amazon और flipkart पर उपलब्ध है. फ़िलहाल मुम्बई में फ़िल्मों के लिए लेखन।