Facebook and Friendship – आभासी दोस्ती की हकीकत

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पहले दोस्ती के लिए बड़े-बड़े साइज वाले पापड़ बेलने पड़ते थे…आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के “कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है “टाइप अमृत वचनों को याद करना पड़ता था…. वहां अब facebook पर  एक क्लिक भर की देर है कि तुरन्त कुसंगति से सत्संगति हो जाती है….
फेसबुक ने फ्रेंड जैसे शब्दों के मायने बदल दिये हैं…..शुक्ल जी अभी होते तो अपना निबन्ध आलमारी में रखकर सर पे हिमगंगे तेल लगाते और रजाई ओढ़कर सो जाते…
जब देखते कि बाबा जुकरबर्ग के असीम अनुकम्पा से यहाँ इकहत्तर वर्षीय कवि जी की दोस्ती षोडस वर्षीया एन्जेल रोज़ी से भी है….और अठारहवर्षीय सुमन्तवा की दोस्ती पचपन वर्षीया परमीला आंटी से भी…तो उनके कपार में दरद हो जाता।
आज हाल ये है कि…..भले कभी कवि जी ने अपनी बीबी के सुंदरता का बखान न किया हो…लेकिन बेटी समान एन्जेल रोजी के रूप लावण्य के गुणगान में इनबॉक्सीय कविता लिखकर दोस्ती का फ़र्ज जरूर अदा करतें हैं…..
“तुझे बनाते वक्त ईश्वर के कांपे होंगे हाथ…..
नख से शिख तक बनाकर
वो भूल गया होगा खुद को

वो ईश्वर है या तुम ईश्वर हो…? ”
हाय….कवि जी के अनुसार इस कविता से साहित्य अकादमी की चौखट हिल जानी चाहिये….खिड़कियाँ खड़खड़ाकर टूट जानी चाहिए…. लेकिन एन्जेल रोज़ी बस “thanx दादू , बहुत अच्छी शायरी लगी’ कहके चैट आफ कर देती है…..
तो भी कवि जी मन ही मन अपने कवित्व पर आत्ममुग्ध हो जातें हैं…मानों इस साल का साहित्य अकादमी मिल गया हो….और सोचतें हैं….”वाह रे हम वाह…कविता कहे और शायरी हो गयी।”
इधर कूल ड्यूड सुमन्तवा भी कम नहीं किसी से , भले मोहल्ले भर की एन्जेल रोजीयाँ सुबह सुबह उसका मुंह देखना अशुभ मानती हों…पर परमिला दादी के डीपी पर “लुकिंग सो स्वीट” वाला कमेंट जरूर चेंपता है…
दादी भी खूब खुश होकर ब्लैक एन्ड व्हाइट वाले जमाने के एल्बम से एक जवानी का फ़ोटो निकालती हैं…और कमेंट में रिप्लाई करती हैं…..” ये देखो मैं 80 में शिमला गयी थी तब की है..झालमूड़ी खा रहे थे हम और हमारे वो. नाइस न?”……हाय…!
फिगर को लेकर पति से रोज ताना सुनने वाली पैंतीस वर्षीया फलानी भाभी के क्लोज पिक पर “अद्भुत सौंदर्य” टाइप 590 कमेंट भले मिले हों..लेकिन बीबी से बुड्ढे घोषित हो चुके पचास वर्षीय अंकल जी उन्हें “शुभरात्रि अब सो जाइए” कहना नहीं भूलते….

क्या कहें…..फेसबुक ने बनावटीपन और दिखावेपन के हजार अवसर दिए हैं लेकिन फेसबुक ने वर्गविहीन जनतंत्र का बड़ा वाला उदाहरण भी पेश किया है…..यहां सब सबके दोस्त हैं…..यहाँ हर फ्रेंड मात्र एक क्लिक की दूरी पर है। क्या अमीर क्या गरीब सब एक जगह….
मन से मोलायम जी की कसम ,समाजवाद कहीं धरती पर है…तो यहीं है…..
यहाँ स्त्री विमर्श के बड़े विद्वान का कब स्क्रीन शॉट आ जाए और उनकी इज्जत का ईंधन जल जाये कोई ठीक नहीं….
कब कोई सुदूर देहात के लड़के की भाग्य रूपी लालटेन जले और वो सेलिब्रेटी हो जाए ये भी ठीक नहीं….
बाबा मार्क्स का साम्यवाद भी भले अब पुरानी जीन्स की तरह हो गया हो..लेकिन यहाँ कहीं न कहीं जरूर कुलांचे भरता है ।
इस समाजवादी और साम्यवादी माहौल में मशीनी हो रहे आदमियों के बीच दोस्ती और फ्रेंड टाइप शब्द भी मशीनी होकर रह गये हैं…..एक क्लिक पर एड ब्लॉक और अन्फ्रेंड का जहाँ ऑप्शन हो वहां दोस्ती निभाने की कल्पना करना बेमानी है…..
आज द्वारिका से लौटकर सुदामा जी को पता चलता की ई नटखट नंदकिशोरवा बिना परमीशन लिए हमारी बीबी से मिलकर चला गया..तो तुरन्त facebook पर कृष्ण जी को ब्लॉक करते।
ये उनका नहीं समय का दोष होता….लेकिन उससे कदमताल मिलाना भी तो जरूरी है….वरना हम पिछड़ जाएंगे।.
बाजारवाद ने मदर्स डे ,लवर्स डे और फादर्स डे बनाकर भले प्रेम शब्द को एक चाइनीज रिबन का मोहताज कर दिया हो….लेकिन नेह की डोर को उतना मजबूत नहीं कर पाया है जितना कभी चिट्ठी-पत्री और तार वाले जमाने में हुआ करता था।सोचना होगा।
इस फेसबुक whats app की मायामयी आभासी दुनिया ने गहरे में कहीं न कहीं प्रेम जैसे शाश्वत शब्दों के मायने बदल दिये हैं। प्रेम भी रस्म हो जाए तो खतरे ही खतरें हैं।
इसलिए इस कीपैड और इंटरनेटीय जीवन के बीच औपचारिक हो रहे सम्बंधों में सबसे पहले खुद से दोस्ती करना जरुरी है…..
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दो चार पांच मिनट खुद से बतियाना और प्रेम करना जरूरी है..तभी हम दूसरे से प्रेम कर पाएंगे
और तभी जाकर किसी तथाकथित मित्रता दिवस की सार्थकता होगी।
बशीर बद्र साहब ने कहा….
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझतें हैं

उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में

कोई जाने जानाँ भी बे-गरज नहीं मिलता

दोस्ती कहाँ होती है आज के जमाने में ।।

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