एक पटाखा विमर्श…

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ये मौसम बदलने का मौसम है। एक झटके में सुबह की नर्म हवा दोपहर की गर्म हवा में इस तरह बदल जाती है,मानों समूचे मौसम विभाग की जिम्मेदारी किसी नेताजी ने अपने कपार पर उठा लिया हो।

जब रात में सिहरन देह को छूती है तब रात भर एक पढ़निहार लड़का ये तय नहीं कर पाता है कि पँखा बन्द रखकर सोना है या चलाकर…

कई बार लगता है कि ये जीवन रूपी मौसम भी इसी उहापोह में बीतने वाला है।

देख रहा आज सुबह धूप खिली है,आसमान में एक ताजगी है। हवा में मौसम के बदलने की मधुर सी आहट।

अस्सी पर चाय-पान की दुकानें इफ़रात में हैं। जहाँ चाय कम विमर्श ज्यादा पीया जाता है।

आज उन्हीं दुकानों में से एक दुकान पर कुछ लोगों के हाथ में कुल्हड़ है,तो कुछ लोगों के हाथों में बिस्किट के टुकड़े..कुछ उखड़े बुद्धिजीवियों की बातें और कुछ बिखरे अखबारों के पन्ने!

एक बुद्धिजीवी के हाथों में अखबार देखकर चिंता होती है कि दिन पर दिन इस देश के बुद्धिजीवी पतले और अखबार मोटे होते जा रहे हैं।

लेकिन बुद्धिजीवी से ज्यादा अखबार पर तरस आती है,जिसमें आज खबर छोड़कर सब कुछ है। यानी ऑफलाइन हकीमों के ऑफर से लेकर ऑनलाइन हकीमों के विज्ञापन तक।

ऑफर ही ऑफर!

कपड़े,गहने,टीवी,गाड़ी,घर,एसी,लैपटॉप,मोबाइल, फ्रिज,कूलर,तेल और
साबुन,दवाई से लेकर रजाई तक पर ऑफर चल रहे हैं… कहीं 50% ऑफ है तो कहीं 70%!

इन ऑफरों को देखकर लगता है कि दुनिया में मुझे छोड़कर सबने सामान खरीद लिया है, बस एक मेरा ही खरीदना बाकी है। भले मुझे अपनी किडनी बेचनी पड़े लेकिन ये जो मोहतरमा अपनी नाजुक अदा के साथ इस भरे अक्टूबर में एसी बेच रही हैं इसे अभी खरीद लेना चाहिए!

उसी पन्ने के बीच एक मोहतरमा अपनी छूई-मुई सी अदा के साथ इस बात का प्रलोभन दे रहीं हैं कि मैं उनका फ्रिज लेकर ठंडा हो जाऊं।

वहीं नीचे एक खिलाड़ी शिलाजीत बेचते हुए बता रहा है कि उसने दूध-बादाम खाकर नहीं वरन शिलाजीत खाकर ही जंग-ए-मैदान में इस देश का नाम रोशन किया है.

इधर एक असफल अभिनेता बड़ी सफलता पूर्वक बता रहे हैं कि दीवाली में लोन लेकर आपका दीवाला निकल जाए लेकिन अगर आपने अब तक घर नहीं लिया तो फलाना हाउसिंग सोसायटी में घर ले सकते हैं… क्योंकि चार लाख की छूट आपको दी जा रही है!

मैं सोचता हूँ क्या आफ़त है ? क्या ऐसे विज्ञापन अत्याचार की श्रेणी में नहीं आने चाहिए ?

मन करता है मैं सबके सामने हाथ जोड़ दूँ और जोड़कर धीरे से कहूं कि–

“हे आदरणीय! हम क्या करेंगे फ्रिज,शिलाजीत और घर लेकर…! ‘संतन को कहा सीकरी सो काम” यहाँ तो अभी इसी पर रिसर्च चल रहा कि मेस में रजुआ ने जो कल दाल बनाई थी वो अरहर की ही थी या मसूर की।

कल जो सौ का आख़री नोट बचा था,उसमें पांच रुपया ऑटो का किराया देने के बाद पॉकेट में पैंसठ रुपया ही आज क्यों है? – ये किस जीएसटी और नोटबन्दी का असर है ?

इधर एक दूसरे बुद्धिजीवी के हाथ में दूसरा अखबार है। जिसके तीसरे पन्ने पर पता चला है कि पटाखा जलाने से प्रदूषण होता है..सो इसका लिहाज करते हुए हमें ग्रीन दीवाली मनानी चाहिए और रात को आठ से दस बजे तक ही पटाखा छोड़ना चाहिए।

देखता हूँ एक भाई साब,जो वरिष्ठ किस्म के गम्भीर बुद्धिजीवी हैं,वो चाय रखकर इस खबर पर नाराज किस्म की मुद्रा बना रहे हैं..जिसका सीधा मतलब ये है कि इस देश के जजों को तीन-तेरह कुछ आना जाना है नहीं..और ससुर के नाती मुँह उठाकर जजी करने चले आते हैं।

जोर-जोर से कह रहे हैं..

“बताओ पांडे..इतनी हिम्मत नहीं कि साल भर प्रदूषण करने वाले सिगरेट,बीड़ी,गाँजा,दारू,अफीम पर दस मिनट का बैन लगा दें..

ऊपर से कहते हैं राम जी ने छुरछुरिया और पटाखा नहीं जलाया…तो भाई अल्लाह ने कौन सा डीजे वाले माइक पर नमाज पढ़ा था” ?

लेकिन नहीं,साला सुप्रीम कोर्ट न हुआ खाला की दुकान हो गई… जब मन में आए शटर उठाकर जो मन में आए बक दो।”

तब तक दूसरी ओर से आवाज आ रही है..

“अरे क्या बात कर दिए आप..कोर्ट ही है तो ये देश चल रहा..वरना भगवान ही मालिक होते..

अरे चुप रहो बे..सब बिके हैं..कोर्ट से लेकर सीबीआई तक…

अचानक चाय की दुकान का मौसम टीवी पर आने वाले ‘आर-पार’ या ‘ताल ठोक’ के डिबेट टाइप हो जाता है,जहाँ सबको पता रहता है कि इसमें बोलते सब हैं,सुनता कोई नहीं है!

तब तक एक गम्भीर किस्म के शोध छात्र बुद्धिजीवी ने हस्तक्षेप किया है। जो यूँ तो दिन में कालेज में शोध करते हैं और सुबह-शाम अपने प्रोफेसर साहब की मलिकाइन के अंडर में शोध करतें हैं। अभी उनके ही शोध निर्देशन में लहसुन और धनिया खरीदने आए हैं।

वो सिगरेट की फूंक मारकर समझा रहे है..”अरे पगला गए क्या ? डॉक्टर कहेगा कि सर आपकी किडनी ठीक नहीं है.. होली को दारू-मुर्गा न लीजियेगा तो उसे सेक्युलर कह देंगे…?

तीसरे बुद्धिजीवी ने बड़े ही प्रेम से कहा है “एकदम चपाटे हो क्या जी ? प्रोफ़ेसरवा का लहसुन-पियाज छीलते-छीलते दिमाग तुम्हारा धनिया हो गया है का ?

अरे! डॉक्टर वाला काम जज साहब को करना चाहिए ? बोलो..

कम्बख्तों ने बच्चों के हाथों से फुलझड़िया छीन ली,यही हाल रहा इनका तो कल कहेंगे कि होली में रंग न लगाओ केमिकल से नुकसान होता है।

फिर कहेंगे केवल सुबह दो घण्टा ही रंग लगाया जा सकता है..फिर फैसला आएगा कि कुंवारे लड़के सिर्फ लड़कों को रंग लगाएंगे..और लड़कियां सिर्फ लड़कियों को..छेड़खानी बढ़ रही है..

जीजा ने साली में रंग डालने का प्रयास किया तो सीधे अगले होली में जमानत होगा।

परसो कहेंगे कि तीज व्रत आधा टाइम पुरूष भी रहेंगे..और करवा चौथ प्रेम में पगलाई कुंवारी कन्याएं न रखें..वरना उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर होता है। फिर कहेंगे कि वेलेंटाइन डे को दो घण्टे से ज्यादा चुम्मा-चाटी न करें वरना सांस्कृतिक प्रदूषण फैल जाएगा..

और एक बार भी नहीं कहेंगे कि बकरीद पर बकरे न काटो..वरना करोड़ों लीटर पानी के साथ करोड़ों मासूमों की जान चली जाती है..और पेटा और मानवाधिकार वालों की नानी सुरक्षित बच जाती है।

एकदम बौचट समझ लिए हैं क्या पब्लिक को बे ?”

मैं क्या कहूँ..तीर पर तीर चल रहे हैं..बवाल पर बवाल..एक से बढ़कर एक तर्क..कौन जीता कौन हारा पता नहीं…

मैं निरपेक्ष भाव से देख रहा हूँ कि इस बहस के ठीक विपरीत एक दूसरी महफ़िल भी जमी है..जिस बहस में ग्यारहवीं-बारहवीं के चार-पांच लड़के जमें हैं..

इनको न दीवाली से समस्या है न सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट से..न ही इनको खबर है कि सबरीमाला में कौन घुस रहा है और राहुल गांधी मोबाइल की अगली फैक्ट्री कहाँ लगा रहें हैं..

इनके हॉट टॉपिक वहीं के वहीं हैं..जहाँ बार-बार श्रेया की डीपी,इंस्टा की सेलेब,रागिनी का व्हाट्सप्प,पबजी का गेम,अनन्या का रिप्लॉई,नेहा का मैसेज..जैसे मुद्दे किसी भी अंतरराष्ट्रीय समस्या से ज्यादा बढ़कर हैं।

एक तिरछोल किस्म का लौंडा चाय की चुस्की लेते हुए पूछता है..”दीवाली में पटाखा आ रही है न ?

देखता हूँ पटाखा का नाम सुनकर सामने बैठे लौंडे का चेहरा आलिया भट्ट के गाल पर उगे डिम्पल जैसा हो जाता है..

“साले नहीं आएगी तो हम दीवाली कैसे मनाएंगे बे”?
वही है तो मेरी होली कलरफुल और दीवाली ब्राइट है! स्कूल में भौकाल टाइट है।

मैं चाय पी लेने के बाद सोचता हूँ कि पटाखा असली किसे माना जाए… बुद्धिजीवियों वाला या इन ग्यारहवी के लौंडों वाला?

प्रदूषण की कैटेगरी में किसे रखा जाए,उन गम्भीर बुद्धिजीवियों को या शुद्ध वर्तमान में जी रहे इन ग्यारहवीं वाले लड़कों को…

लेकिन कई बार लगता है विमर्श इस देश की एक बौद्धिक खुराक है… जो समय-समय पर पूरी होती रहनी चाहिए..

हमें रोज एक मुद्दा चाहिए टीवी डिबेट के लिए कालम लिखने के लिए फेसबुक, ट्विटर अपडेट करने के लिए, चाय की दुकान पर बहस के लिए..

यानी हम हवा-पानी और भोजन के बिना जिंदा रह सकतें हैं लेकिन बिना विमर्श के जिंदा नहीं रह सकते..

लेकिन अभी शोध होना बाकी है कि आदमी के चित्त को इन निरर्थक विमर्श से क्या हासिल होता है ? अगर इस देश के क्रांतिकारी बुद्धिजीवी सिर्फ एक टाइम सिर्फ सिगरेट पीना छोड़ दें तो आधा बौद्धिक औऱ मानसिक प्रदूषण ऐसे ही कम हो जाएगा।

अगर कुछ लोग दिन में बस एक घण्टा चुप रहें तो ग्लोबल वार्मिंग से ज्यादा बड़ी समस्या का समाधान अपने-आप हो जाएगा…

लेकिन नहीं- यहाँ सब एक दूसरे को सुधार रहें हैं..बिना ये जाने कि इस तरह के सुधारवाद से जमीनी सुधार नहीं होते..

अरे ! बहस तो इस पर होनी चाहिए थी कि इस बार की दीवाली में हम अपनी किस बुरी आदत को जलाने जा रहें हैं..किसी गरीब के घर इस बार दीवाली कैसे मनेगी ?

घर में काम करने वाली दाई को,दूध वाले,अखबार वाले,सब्जी वाले और ऐसे तमाम लोगों को जो अपने-गाँव घर से दूर शहर में रहकर बस किसी तरह पेट भर रहें हैं- उन्हें हम अपने सामर्थ्य के अनुसार ऐसा क्या दे सकतें हैं कि इस दीवाली उनके चेहरे पर थोड़ी ज्यादा रौशनी हो जाए। ?

पर क्या कहें..किसके अपेक्षा करें..कुएं में भांग पड़ी है। और सब नशे में हैं।

शायद विमर्श हमारा राष्ट्रीय मनोरंजन है जिस पर कोई टेक्स नहीं है। और हम सब इस करमुक्त व्यवस्था का भरपूर फायदा उठा रहे हैं..।

बस….!

असर का एक शेर न जाने क्यों याद आ रहा है.

उल्फ़त का है मज़ा कि ‘असर’ ग़म भी साथ हों
तारीकियाँ भी साथ रहें रौशनी के साथ

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