एक माइल्ड सा दर्द !

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सब्जी की दुकान पर खड़ा होते ही एक मीडिल क्लास आदमी सबसे पहले इकोनॉमिस्ट बन जाता है। ग़लती से दो-चार सौ की सब्ज़ी आपने ले ली तो महंगाई की तरह आपकी बीपी बढ़ने लगती है और कुछ ही देर में रुपये की तरह कमज़ोर पड़ते हुए आपको ये एहसास हो जाता है कि धनिया तो फ्री में लेना था,वो तो मांगा ही नहीं।

मैनें देखा है। मुम्बई में लोग बीएमडब्ल्यू से उतरते हैं और दस रुपये पाव वाली सब्जी को कहते हैं,”जरा कम लगाकर धनिया डाल दो भाई !”

सब्जी वाला भी गर्दन हिलाकर कम लगाते हुए धनिया डाल ही देता है। क्योंकि वो भी जानता है कि अक्खा मुम्बई में कम लगा देने की सारी संभावनाएं सिर्फ सब्जी बेचने वाले के पास ही मौजूद हैं, किसी कार बेचने वाले के पास नहीं।

इधर मैंने एक अरसे से महसूस किया है कि चाय की दुकानों को भी ठीक इसी कैटेगरी की सुविधा प्राप्त है।

कुल्हड़ में एक चाय लेते ही हर आदमी की सुसप्त राजनीतिक चेतना जाग्रत हो जाती है और गाहे-बगाहे आदमी को लग ही जाता है कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा इस दुनिया में सबको पता है कि पॉलिटिक्स कैसे करनी चाहिए।

लेकिन आज की ये ताजा तरीन हसीन सी घटना न सब्जी के दुकान पर घटी है, न ही चाय की दुकान पर…ये घटना एक बस स्टॉपेज पर घटी है।

सर्व विदित है कि मुम्बई की बारिश जुलाई में जवान होती है।

इसी जवानी के दिनों में छाता लेकर भीगते हुए एक लेखक हाथों में कुछ साहित्य की किताबें लिए बस स्टॉपेज पर जीवन का उद्देश्य क्या है टाइप खालिस बौद्धिक विषय पर चिंतन कर रहा है। तभी नेपथ्य से भीगते हुए एक सुकन्या का आगमन होता है।

सुकन्या को देखते ही निराशा की गहन कोठरी में उत्साह के नव नूपुर बज उठते हैं। सारा अस्तित्ववादी चिंतन छायावादी चिंतन में तब्दील हो जाता है। आरडी बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी के नगमे जहाँ कहीं भी हों,आँखे खोल लेते हैं। मन के आकाश में सौंदर्य की माया घेरने लगती है।

रुप लावण्य देखकर प्रतीत होता है कि वो अभी-अभी किसी आडिशन से “नाट फिट” की पारम्परिक आवाज़ सुनकर लौट रही हैं। कायदे से मेकअप भी नहीं उतरा है या मेकअप इतना ज़्यादा है कि बारिश भी उसका बाल-बांका नहीं कर सकी है।

बालों को बड़े ही बाँकपन से संवारते हुए वो लेखक की हाथों में क़िताबों को गौर से देखने के बाद पूछती हैं,”एसी वाली बस कब आएगी ?”

लेखक उनके चेहरे से टपकते सावन को भीतर तक महसूस करते हुए कहता है…

“जी अभी तो गई है।”

“अच्छा-अच्छा आप भी उसी तरफ जा रहे हैं..?”

“जी नहीं,मुझे कहीं नहीं जाना..!”

“तो बस स्टॉपेज पर क्यों खड़े हैं..?”

“जी,मैं कहीं नहीं जाना चाहता हूं..!”

“क्या मतलब इसका ?”

“जी,कभी-कभी कहीं नहीं जाने के लिए भी कहीं जाना पड़ता है।”

लेखक की बात सुनकर मोहतरमा का चेहरा जीएसटी की तरह पेचीदा हो जाता है। अपने सुर्ख गुलाबी गालों से पेच-ओं-खम हटाकर मुस्कराते हुए कहती हैं..

“क्या मतलब…कुछ समझी नहीं…!”

“जी इसका मतलब ये है कि मैनें आज हिंदी साहित्य की एक दर्जन अस्तित्ववादी कविताएं पढ़कर दो ईरानी फिल्में देख ली हैं। मुझे लग रहा है कि मैं इस दुनिया का आदमी नहीं हूं…मैं कोई और हूँ..!

“ओ,माय गॉड… ही ही..”

मोहतरमा की हंसी से दिल की किताब के सारे पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। हंसते हुए बड़े ही आश्चर्य से देखती हैं। मानों थार के मरुस्थल में किसी साइबेरियन पक्षी को देख रहीं हों।

“ओ, तो आप लेखक हो..?”

लेखक का मुंह चौड़ा हो जाता है।

“जी-जी बस थोड़ा सा ही, लिख लेता हूँ..!”

“हाउ फनी, थोड़ा क्यों, पूरा क्यों नहीं ?”

लेखक का दार्शनिक मन जागता है।

“जी..ये शहर खुद एक जिद्दी लेखक है,जो आपको-हमको थोड़ा-थोड़ा करके टुकड़ों में लिख रहा है,इसकी लेखनी के आगे सारे लेखक फेल हैं।”

“ओह,गॉड…! साउंड्स गुड..!”

तारीफ़!

लेखक एक बनावटी मुस्कान के साथ इस तारीफ़ को अस्वीकृत करनें का नाटक करता है। लेकिन मोहतरमा हैं जो मानती नहीं है।

“अच्छा हुआ जो आप अभी आधे ही राइटर हुए हो…वरना यहाँ मुम्बई में हर आदमी एक्टर,डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर है। और जो कुछ नहीं है वो कम से कम एक राइटर है,जिसके पास एक धांसू कहानी है,जो किसी के पास नहीं है।

जो यहां कुछ नहीं कर रहा है वो एक फ़िल्म बना रहा है और आप पहले ऐसे आदमी हो जो फ़िल्म नहीं बना रहे हो,वरना मुझे देखते ही हर आदमी एक फ़िल्म बनाने लगता है।”

मोहतरमा ये कहते हुए न जाने कौन सी भाषा की हंसी हंसती हैं।उनकी बातें दिल के उमस भरे कोनों को तसल्ली देती हैं। लेखक मुस्कराता है।

“जी मैं तो खुद फ़िल्म बन चुका हूं…! आज का सीन आपके साथ था… शायद ख़तम हो गया….आपकी बस आ गई।”

बस स्टॉप पर चहल-पहल बढ़ गई है। विदा की बेला करीब है। बैकग्राउंड में एक करूण संगीत बज रहा है। लेखक को आज पता चलता है,ओह ! जाना हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया क्यों है।

मोहतरमा बस पर सवार हैं। बस का ड्राइवर एक दर्जन बार हॉर्न बजा चुका है। उसका उत्साह चरम पर है। समझ नहीं आता कि ये ड्राइवर बम्बई में एसी बस चला रहा या बलिया से हल्दी रोड पे टेम्पू चला रहा है।

बस अपने गंतव्य स्थान की तरफ बढ़ रही है। मोहतरमा नें अपने बालो को सँवारकर कानों में ईयरबड्स खोंस लिया है। हाथ हिलाकर बाय करती हैं,मानों अब हम कभी नहीं मिलेंगे।

“सुनिये…

“हं जी”

“वो मैं भी एक लेखक हूँ..! गूगल पर सर्च करिएगा…”

इतना कहकर झट से ओझल हो जातीं हैं।

गूगल का नाम सुनकर लेखक की दशा याहू जैसी हो रही है।
दिल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की तरह बैठ रहा है। हाथ में रखे प्रेम कविताओं की किताबों में बैठे कवि चीख रहे हैं।

हाथ नहीं उठता है। सामने आसमान में सावन के बादलों को चीरकर तपता हुआ सूरज निकल आया है। दिल उस मतवाले घोड़े जैसा हो चुका है जो अपनी चाल भूल गया है। तब तक मोबाइल बज उठा है.. उधर से एक दूसरे लेखक की आवाज़ आ रही है।

“सुनो न, एक माइल्ड सिगरेट लेते आवो यार..बस एक सीन बचा है,ख़त्म कर दूं नहीं तो साला प्रोड्यूसर बहुत गरियाऐगा !”

लेखक मन ही मन फोन के उस पार बैठे लेखक को गरियाता है..।

“अबे,यहाँ तो सारा सीन ख़तम हो गया…!

“क्या..?”

“हं भाई…दिल में माइल्ड-माइल्ड दर्द हो रहा और तुमको माइल्ड सिगरेट की पड़ी है।”

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