जिनगी वो मेला है,जिसमें आखिरी सांस तक झमेला है.इस मेले में उदासियों के समियाने खड़े हैं,तो कहीं नांचती चरखी पर बैठे फलानें। जरा सा आगे बढ़ने पर मौज की बनती पकौड़ी दिखती है,तो कहीं किसी पड़ाव पर बैचैनी की छनती जलेबी।
लेकिन आखिरकार वो दिन आता है,जब चला चली की बेला में,ये चार दिन का मेला उखड़ जाता है.और लोग आपके फोटो के नीचे अगरबत्ती जलाकर बड़े प्यार से कहते हैं.”जैसा भी था.आदमी अच्छा था..इहाँ रहने कौन आया है”
मित्रों – काशी इसी जिनगी रूपी झमेले के खत्म हो जाने का दूसरा नाम है.लेकिन यहाँ सिर्फ झमेला ही नहीं है.कुछ मेला भी है और मेला लगने के पीछे.लम्बा खूब सा इतिहास,और चौड़ा सा भूगोल भी.जैसे यहाँ नक्कटैया का मेला तब लगता है जब दशहरा के दौरान रामनगर की रामलीला में सूपर्णखा जी की नाक लक्ष्मण जी द्वारा काट ली जाती है। कहते हैं.रामलीला के इस अलौकिक दृश्य का जश्न सभी बनारसी नक़्क़टैया के मेले में रात भर जलेबी खाकर मनातें हैं।
वहीं एक मेला है लोटा-भंटा का मेला और कजरी का मेला..एक तीसरा विश्वप्रसिद्ध मेला और है जिसको भरत मिलाप यानी नाटी इमली का मेला कहतें हैं..इस दिन नाटी इमली के ऐतिहासिक मैदान में जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और भरत का मधुर मिलन होता है,तब ऐसा लगता है मानों इस अलौकिक मेले में तीनों लोक उमड़ आया हो.
सारी दुनिया से लोग आज नाटी ईमली में पैदल चले आ रहें हों.जिधर देखो.रेला पर रेला ही नज़र आता है..फिर तो हाथी पर सवार होकर आतें हैं काशी नरेश.और रथ सवार राम और भरत का मधुर मिलन कराके समस्त काशीवासीयों के कुशलता की कामना करतें हैं। लेकिन मित्रों- काशी में एक ऐसा भी मेला है..जिसमें जलेबियाँ नहीं छनती हैं..न ही चाट-पकौड़ी और चरखी,बिंदी,चूड़ी,टिकुली,सेनुर की दुकान लगती हैं..न ही राम और भरत मिलतें हैं।
ये मेला जरा दूजे किस्म का है..यहां सुर की गंगा, ताल की जमुना से ऐसी मिलती है कि नृत्य की सरस्वती अपने आप जीवंत हो उठती है।और फिर ये त्रिवेणी जब-जब बहती है,तब-तब मैंने देखा है कि सोते-जागते,उठते-बैठते कभी रुद्र वीणा की गूंज दिल-दिमाग को झंकृत कर जाती है.तो कभी पखावज की थाप सुसुप्त चेतना को नांचने पर विवश कर देती है।हम सुबह की लाली से ठीक पहले आँख मलते हुए जैसे ही उठते हैं..देखते हैं..डागर बन्धु अडाना गा रहें हैं..
“शंकर-शंकर भोलानाथ”
फिर तो दोनों हाथ अपने आप ऊपर उठ जाता हैं.और आत्मा के किन्हीं अनजाने कोटरों से आवाज आती है…”हे ईश्वर तुम जिस किसी लोक में हो..मेरा धन्यवाद स्वीकार करो.क्योंकि तुमने हमें तीनों लोकों से न्यारी उस काशी में भेजा है,जहां बैठकर हम गंगा किनारे ध्रुपद सुन रहें हैं।
मित्रों- हाथ अभी ऊपर रहता ही है तब तक पता चलता है कि कोई अखिलेश गुंदेचा के पखावज से आदमी नहीं समस्त घाटों के पत्थर भी हील रहे हैं..
“धा धा दीं ता तिट क़त गदिगन”
फिर तो क्या कहूँ..ये चीज़ उस कैटेगरी की है,जो बताईं और समझाई नहीं जा सकती हैं.बस महसूस की जा सकती हैं।
लेकिन आपको इतना बताऊं कि आज इस ध्रुपद मेले के देखनिहार देशी से ज्यादा विदेशी हैं.कोई अमरीका से आया है कोई जापान से.कोई ऑस्ट्रेलिया तो कोई जर्मनी से.कोई बारह साल से आ रहा.तो कोई पन्द्रह साल से.किसी ने पहली बार इसे अपने बाप के साथ देखा था.किसी ने माँ के साथ.और जैसे-जैसे दिन बीता.तुलसी बाबा की किरपा,बाबा संकटमोचन का आशीर्वाद से ऐसा हुआ कि ये ध्रुपद मेला इस जिनगी के झमेले का अंग बन गया।
आज तारीख ग्यारह फरवरी है.स्थान तुलसी घाट,समय शाम के छह बज रहे हैं.संकटमोचन मंदिर के महंत और इस कार्यक्रम के आयोजक,तुलसी दास अखाड़ा के महंत स्वर्गीय वीर भद्र मिश्र जी के घर के सामने वो खाली जगह..लोग इकट्ठा हो रहें हैं.
मेले का पहला दिन होने के कारण भीड़ कम ही है.लेकिन उपस्थित श्रोताओं की आंखों में महाराजा काशी का इंतजार है.कारण,ये ध्रुपद मेला महाराजा काशी के विद्या मंदिर ट्रस्ट और संकट मोचन मन्दिर के महंत अमरनाथ मिश्र जी द्वारा शुरु किया गया था..
अभी कलाकरों की लंबी लिस्ट लगी है.पता चला है आज बैंगलोर के ख्यात मृदंगम वादक पद्म श्री येलल्ला वेंकटेश्वर राव अपना कार्य्रकम प्रस्तुत करेंगे..मैनें दर्जनों बार सत्तरवर्षीय येल्ला जी को मृदंगम बजाते सामने से देखा है..और जब-जब देखा है तब-तब ऐसा लगा है कि बाकी लोग सोलह साल में जवान होते होंगे लेकिन एक कलाकार सत्तर साल की अवस्था में ही जाकर जवान होता है।
मेरे इस चिंतन को विराम तब लगता है.जब पता चलता है कि आज ही जयपुर से पधारे मधुभट्ट तैलंग जी का गायन भी होना है..वहीं दिल्ली से पधारे ख्यात पखवाज वादक डालचंद शर्मा जी का पखावज वादन भी होना तय है.लेकिन देखता हूँ..जनता इंतजार में है.जापान से पधारे मारिको कात्सुरो को सुनने की..सुना है मारिको आज ध्रुपद गाएंगे.ये सुनकर कुछ लोगों की आंखे चौड़ीयाती हैं.सामने लगे चाय के स्टालों पर,संगीत के दुर्लभ आडियो-वीडियो की दुकानों पर..और मिरज से पधारे तानपुरे की दुकानों पर..धुर बनारसी पान घुला कर चिंता व्यक्त कर रहें हैं-
“बतावा भाय! अब जापानी सरवा धुरपद गाई.अमरीकन पखावज और मृदंगम बजाई.और हमन के दिन भर पान खाके पपूआ के दोकानी पर पॉलटिक्स-पॉलटिक्स बतियावल जाई.अब डूब नाय मरे के चाहीं हो.कहो लखन..की ना हो बदरी..”?
तब तक एक जन धीर धराते हुए उन महानुभाव की जानकारी और बेचैनी में श्रीवृद्धि करते हैं.”आप नहीं जानते मने का ?यहाँ हर साल भारी-भारी जटा-जुट वाले विदेशी आकर गान-बजान करते हैं.और इनकी संख्या इसी तरह बढ़ती गई तो पता चलेगा पचास साल बाद अमरीका से ध्रुपद गाने वाले को बुलाया जाएगा और जापान से पखावज वाले को.और एक दिन ऐसा भी आएगा जब ऑस्ट्रेलिया वाला कहेगा कि भाई बनारसी मेरे पास टाइम नहीं है.कहो तो टीवी में बैठके यहीं अपने घर से बजा दें..तुम अपनी टीवी में सुन लेना”
इस बात के बाद हल्की बनारसी हंसी पान के साथ घुल जाती है.उधर महाराजा काशी नरेश द्वारा कार्यक्रम शुरू करने की औपचारिकता पूरी होती है.
इस बार चौवालीस साल की परम्परा को मात देते हुए ध्रुपद मेले में नृत्य को शामिल कर दिया गया है..कई जगह इस बात को लेकर महंत पंडित विश्वभमर नाथ मिश्र जी को ताना भी दिया जा रहा.कि ये महराज ध्रुपद मेले की गम्भीरता और परम्परा खत्म करके मानेंगे,मुझे बड़ी तरस आती है ऐसा सोचने वालों पर की मैं कैसे बताऊँ कि संगीत का मतलब म्यूजिक नहीं होता है जो नृत्य को गायन और वादन से अलग मानता है..यहाँ तो “गीतं वाद्यं नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते” है बन्धु।
सुना है नृत्य के लिए पधारे हैं..मुम्बई से पधारे केका सिन्हा और वाराणसी की डॉक्टर विधि नागर जी.आज ही दिल्ली के चेतन जोशी की बांसुरी,और साऊथ अफ्रीका के अरुंधति दाते का गायन भी है..गोरखपुर के शिवदास चक्रवर्ती का सरोद वादन होना है.तो भोपाल के अफ़ज़ाल हुसैन और इंदौर के मनोज सर्राफ का गायन भी है।
रात भर खूब ध्रुपद जमता है..दूसरे दिन प्रस्तुति लेकर काशी के लोकप्रिय पखावज वादक पं.रविशंकर उपाध्याय मंचासीन होते हैं.. स्वतंत्र पखावज वादन की शुरुआत उन्होंने अपने घराने की परंपरागत परन से की है.तीसरी प्रस्तुति में डॉ.ऋत्विक सान्याल का गायन, उन्होंने आरम्भ राग भिन्नेश्वरी में आलापचारी क़े साथ चौताल में निबद्ध रचना से की, उनके साथ पखावज पर जापान के तेश्या कन्हाईको एवं काशी के अंकित पारिख ने संगत की।
अगले दिन इटली से आए जियानी रिचिजी द्वारा रुद्रवीणा बजाया जाता है..तो वहीं देश के सुप्रसिद्ध ध्रुपद गायक द्वय उमाकांत और रमाकांत गुंदेचा का गायन होता है.राग हमीर में अलापचारी..फिर.”छिड़कत अबीर गुलाल..” से जनता मंत्रमुग्ध.पखावज पर साथ हैं..रमेश चन्द्र जोशी और ज्ञानेश्वर देशमुख.
लेकिन भजन सोपोरी का संतूर तब हैरान कर जाता है.जब उनके साथ पखवाज पर संगति करने बैठा दिए जातें हैं..इस ध्रुपद मेला के आयोजक यानी संकट मोचन मन्दिर के महंत..और आईआईटी बीएचयू के इलेक्ट्रिकल विभाग में प्रोफेसर पण्डित विशम्भर नाथ मिश्रा.
अस्सी की जनता अपने महंत जी की इस युगलबन्दी देखकर जरा हैरान है.ठीक उतना ही जितना कि बाकी लोग उनके महंत और आईआईटी प्रोफेसर की जुगलबन्दी से होते हैं।
अब बांसुरी की वो आवाज आ रहे हैं.जिन्हें समूचा सांगीतिक युग पण्डित रोनू मजूमदार के नाम से जानता है।उनके बजाए झाले से अस्सी का कोना-कोना कांपने लगता है..ऐसी फूंक..ऐसा झाला,ऐसा आलाप,सब कहते हैं.चौरसिया जी की विरासत को इन्हीं जैसे वादक थाम कर रखेंगे भाई।
आगे जयंती कुमरेश,जान्हवी फँसालकर, सुखदेव चटर्जी,आशुतोष भट्टाचार्य, से लेकर दर्जनों ध्रुपद के दिग्गजों का गायन होता है,तो वहीं देवव्रत मिश्रा,गीता नावले का अद्भुत सरस्वती वीणा वादन भी।मुम्बई से पधारे भूषण पुष्पराज कोसठि सुरबहार बजातें हैं..और महराष्ट्र से आए.भक्तराज भोसले और ऋतुराज भोसले पखावज.
इस तरह कभी गायन,कभी वादन कभी नृत्य से अनवरत चार दिन चलने वाला ये नाद योग का अद्भुत मेला अपने विराम की ओर तब बढ़ता है..जब ध्रुपद के डागुर बानी परम्परा की आठवीं पीढ़ी भोर में ध्रुपद गाने बैठती है.उस्ताद अनीसुद्दीन डागर और उस्ताद नफिसुद्दीन डागर.
राग अडाना..वही स्थायी अंतरा संचारी आभोग.बाप रे क्या तैयारी है। एक-एक स्वर मानों गंगा की लहरों से टकरा कर कंपन पैदा कर रहें हों..जहाँ पता नहीं चलता है कि चित्त में जकड़े विषाद के अंधकार को चीरकर आनंद का सूरज कब उग जाता है..और अमरीका से आई क्रिस्टीना से लेकर सैकड़ो लोगों के लिए शाम से बैठे-बैठे सुबह हो जाता है।
और रात भर जगने के बावजूद भी क्रिस्टीना जैसी सैकड़ों आंखों में थकन नहीं झांकती है..तब लगता है..इस जिनगी के झमेला में असली मेला कोई है तो वो ध्रुपद मेला ही है.जिसे जियत जिनगी में आदमी ने एक बार आंख बन्द करके नहीं देखा तो उसकी जिनगी बेकार है जी बेकार है।