कॉलेज का पहला दिन ! आसमान में धूप और बादलों की जंग जारी है,लेकिन इधर तो खुशी बिन बादल के बरस रही है।
एक देहात के स्कूल से पहली बार केन्द्रीय विश्वविद्यालय का छात्र होना,कितना आह्लादित कर रहा है। ये हमारे क़दमों की चाल देखकर समझा जा सकता है।
लेकिन ये क्या ? अभी हमारी सारी खुशी बीएचयू का नक्शा समझने में ही समाप्त हो रही है। आज फीस जमा करने की आखिरी तारीख़ है और घड़ी बारह बजाने को आई है।
देख रहा अपने संकाय के कार्यालय में मेरे जैसे दर्जनों विद्यार्थी अपने हाथों में ज़रूरी कागज़ातों को लेकर किसी खूबसूरत मुज़रिम की तरह लाइन में खड़े हैं। एक बंगाली कम बनारसी दादा केशव का पान मुँह में घुलाकर फोन पर बतियाए जा रहें हैं…
“ए,दादा,हटो-हटो.. आमरा एती कोरबो ना ?”
“अरे! दादा, कम से कम मेरा काम तो कर दीजिए…!”
दादा हैं कि फोन रखने का नाम नही ले रहें हैं। उनकी भौहें उनके शरीर के बढ़ते तापमान की गवाही दे रहीं हैं..!
इधर नवोदित छात्रों के चेहरे पर प्रसन्नता किसी छप चुके अख़बार की तरह साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है।
“रे शिवमवा, ई पियरकी शूटवा वाली अइसे ही खड़ा रहेगी तो साला आज क्या रे ,हम तीन साल तक लगातार रोज फीस जमा करते रहेंगे…!
“रे! रे! चुप ससुर डीन सर,सामने हैं..समझ नहीं आता..बकलोल की तरह कुछु बके जाते हो..?”
“बाप रे! ई डीन हैं..?
“तब क्या तुमको नहीं पता ?”
“नहीं रे,इनके सर पर तो सिंग नहीं दिख रहा है,पशु अस्पताल में दगवा दिए हैं क्या बे ?”
“चुप-चुप उधर देखो…!”
इधर लिपिक जी बेचारे !…. अपने सर के ऊपर बढ़ती भीड़ से परेशान हो रहें हैं। सामने मेज पर रखा पान का दूसरा बीड़ा खाए जानें का इंतज़ार कर रहा है। लेकिन अब उनके पास समय नहीं है।
अचानक उनका गुस्सा बढ़ जाता है…फलस्वरूप अब ठेठ बंगाली टोला वाली बनारसी उनके जबान पर टपक पड़ी है।
“हमरे मथवा पर लिखल हौ ?”
“नहीं सर!”
“कहाँ घर है जी तुम्हारा ?”
“बलिया जिला सर !”
“बलिया जिला हौ त,जिए न देबा ?”
” तनी एहर हो जा भाय, गर्मी देखत हवा..”
उनके बगल में बैठे रामनगर के क्लर्क समझा रहें हैं…!
“फीस कहाँ जमा होगा सर ?”
“सेंट्रल ऑफ़िस !”
“यहां जमा नहीं होगा ?”
“नहीं, कितना बार समझाए एक्के बात…? एकदम मूर्ख हो क्या ?”
“सर,हम पहली बार बीएचयू में आएं हैं…!”
पसीने में भीगा लिपिक दादा अब बन्द पड़ी एसी की तरफ देखकर भड़क जाते हैं..
” तो हई लोग का अपने बाबूजी के ससुरारी आइल हौ ?”
“ही ही ही…”
लौंडों की वही हँसी.. लड़कियाँ बेचारी मुंह छिपाकर अलग हंस रहीं हैं।
लेकिन ई देखो शिवम जरा फर्जीवाड़ा..
दादा उनसे तो ऐसे बात कर रहें हैं,जैसे अपनी सगी बेटी हो और हम लड़को में कौन सा कांटा लगा है ?
अब हमें डाँट पड़ रही है।
इधर एक दूसरे बुजुर्ग हो गए लिपिक की तीखी बातें लंका की चचिया वाली कचौड़ी और गाली से कम करारी नहीं लग रही है।
दिन के एक बजने को हैं…हम बाहर निकल आए हैं…!
“अब बड़ी समस्या तो ये है कि साला ये सेंट्रल ऑफिस कहाँ है यार ? “
“होगा कहीं इसी में यार..!”
मने, मालवीय जी भी गजबे आदमी थे गुरु ! फिरी का जमीन मिल गया तो हेंगा लेकर जोत दिए…घर बनवाए यहां और किचन और स्टोर रूम बनवा दिए दो किलोमीटर दूर…! दौड़ते रहो केतली लेकर…”
“इतना बड़ा कहीं कॉलेज होता है यार ? “
“एक ऑफिस यहां,एक ऑफिस लन्दन..”
चलो पैदल…. !
सब पैदल चल रहे हैं..आज बाइक और साइकिल रखने वाला हमें प्राइवेट जेट के मालिक जैसा लग रहा है।
कुछ सीनियर लौंडे श्रृंगार करके खड़े हैं कि कोई नई कन्या आकर कह दे कि भइया ये सेंट्रल ऑफिस कहाँ है.. और वो उसे बाइक पर बिठाकर फीस जमा करवा आएं… !
उनको देखकर हमें गुस्सा आ रहा है..कभी-कभी अपने लड़के होने पर भी लड़को को तरस आती है यही बात एक लड़का समझा रहा है। काश हम सुंदर लड़की होते….!
“अरे ! चलो आ गया यार…ई बुझ लो ,सेंट्रल ऑफ़िस बीएचयू के टॉवर ह! उ न रही त सब टॉवर के खूँटी भाग जाई…!
अब भइया पीठ पर बस्ता लेकर हम सब मुँह लटकाए टॉवर की तरफ चले जा रहें हैं। इधर पियरका शूटवा वाली हरियरका शर्ट वाले के साथ बाइक पर बैठकर किधर गई किसी को कुछ पता नहीं…!
हमारे करेजा पर सांप लोट रहा है।
हमें तो अभी कुल जमा दो दिन आए हुए हैं.. न साइकिल है,न मोटरसाइकिल..न कोई दोस्त,न मित्र…! जुलाई की सड़ी हुई गर्मी में पैदल चले जा रहें हैं..चले जा रहें हैं.. इधर सेंट्रल ऑफिस जो है कि आनें का नाम नही ले रहा है।
“किधर है सेंट्रल ऑफिस ?”
“आ गया, ये रहा..!”
“अरे! बाप रे! इतना बड़ा !”
वहां गए तो पता चला पहले से ही चार सौ लोग लाइन में खड़े हैं..
“आप भी लाइन में खड़ा हो जाइए शर ?”
“अरे शर हमारा शर पकड़ लिया… रे साला शर नहीं, सर!”
“तहार कपार..हई भीड़ देखत हवा…”
“आ ही जाएगा नम्बर, सबका आता है,आपका भी आएगा।”
“लग जाइये,लग जाइये… !”
अब भइया, लाइन में खड़े खड़े आपका नम्बर आया तो पता चला की हो गई एक और आफ़त।
“का हुआ जी ?”
“अरे! साला,अब एक सर्टिफिकेट का फ़ोटो स्टेट कम है! “
“अब लो बढ़ गया न काम..अब फ़ोटो स्टेट कहाँ होई गुरु !”
“वीटी होई गुरु..!”
“अब ई वीटी कहा है ससुर…?”
“यहां से करीब दो ढाई सौ मीटर सीधे पैदल…”
“अरे! बाप हो.. “
अब माथा चकरा रहा है..! डेढ़ बजने को हैं…
लेकिन फ़ोटो स्टेट तो कराना है…फीस तो जमा करनी है।
आख़िरकार फ़ोटो स्टेट हो रहा है। यहां भी भीड़ है।
लेकिन साला वीटी भी क्या अद्भुत जगह है यार.. हाथ जुड़ रहें हैं, बाबा की तरफ.. ख़्याल रखियेगा बाबा, हम लोग इस अखाड़े के नए बछरु हैं….!
साला क्या माहौल है यार..उ पियरका सूटवा वाली तो लग रहा कि फीस जमा करने के बाद आइसक्रीम खा रही है।
“चलो-चलो…”
आख़िरकार,फीस जमा हो गई। रसीद मिल गई। लग रहा स्वर्ग का एंट्री कॉर्ड है।
“इसे सम्भालकर रखना..बहुत काम आएगा..!”
“रखा है सर, !
“आज तक रखा है।”
कैसे कहूँ सर कि दस साल बाद भी सम्भालकर ऐसे ही रखा है,जैसे अभी-अभी फीस जमा किया हो… 😑
आपको पता है ?
एक किसान के लड़के का यूनिवर्सिटी में छात्र हो जाना उसके सत्तरह-अठारह साल की उम्र का सबसे बड़ा दिन होता है। वो कैसे नहीं संभालेगा?
मुझे याद है जब ये सारी प्रक्रिया हो गई.. और मैं अपनी स्टूडेंट आईडी पहली बार हाथ में पकड़कर उसे छूने लगा,तो ऐसा लगा जैसे सारी गर्मी और सारी थकान गायब हो गई हो।
उस छोटे से पीले कार्ड में अपना नाम,पता और नम्बर देखकर लगा कि अरे अब तो हमारी दुनिया ही बदल गई। महामना नें हमें एक नई पहचान दे दी..!
तभी तो रोज पढ़नें जाते समय उनकी प्रतिमा की तरफ अपने आप हाथ उठ जाते थे। आज भी कहीं उनकी तस्वीर दिख जाती है..तो दिल श्रद्धा से झुक जाता है।
“हे,महामना, आप ग़जब थे। आप न होते तो ये सर्व विद्या की राजधानी कहाँ होती और हम कहाँ होते ?”
आपको पता है..सिर्फ मैं ही नहीं। सिर्फ़ बीएचयू ही नहीं..
किसी भी विश्वविद्यालय में एडमिशन लेने वाले विद्यार्थी की खुशी उसके जीवन के सबसे यादगार दिनों में से एक होती है।
औऱ जैसे बीएचयू में पढ़ने वाला विद्यार्थी अपने कैम्पस को लेकर भावुक होता है,ठीक वैसे ही अन्य यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी भी होता है।
ये एक भावनात्मक रिश्ता है जो बिना किसी क्लास,बिना किसी सिलेबस के हमारे अवचेतन में बस जाता है।
लेकिन आज…!
दुःख तो इस बात का है कि मेरे जिस भाई-बहन नें सन दो हजार बीस में एमए और बीए में एडमिशन लिया है,वो इस ख़ुशी से वंचित रह गए हैं।
उनके साथ कोरोना नें सबसे ज़्यादा ज्यादती की है। उनके साथ सबसे बुरा बर्ताव हुआ है। जीवन के सफर में ये दो साल,जो एक बड़े से कैम्पस में हमारे अंदर बरगद के बीज डालनें वाले थे,वो कुम्हलाए से हैं..!
सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है। ऑनलाइन परीक्षा,लेक्चर,
सेमिनार और न जाने क्या-क्या !
लेकिन मैं देख रहा कोई खुश नही है। न गुरू न ही छात्र!
बड़े-बड़े दावे किए जा रहें हैं कि आने वाले समय मे इस एप पर पढ़ाई होगी। सारा काम एप पर होगा.. ये देखो बायजुस और अनएकेडमी में कितना फॉरेन इन्वेस्ट हो रहा। बायजूस का मालिक रवीन्द्रन कुछ दिन में टाइम के कवर पेज पर आने वाला है। ये बड़े-बड़े संस्थान बन्द होने वाले हैं..!
अरे! ये अपनी बकवास बन्द करिये यार..! एकदम बकलोल हैं क्या जी ?
आपको क्या लगता है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी केवल इमारते भर हैं..?
ये केवल इमारतें होती तो दो हजार बीस में यूजी और पीजी में एडमिशन लेकर दिन भर ऑनलाइन क्लास लेने और देने वालों के चेहरे इतने उदास होते ? नहीं होते…!
यूनिवर्सिटी तो एक क्रियेटिव ऊर्जा का उदगम स्थल है,जहां का वाइब्रेशन हमें बिना किसी कॉपी-किताब के बिद्यार्थी बना देता है।
लाख ऑनलाइन क्रांति हो जाए…वो वाइब्रेशन हमें नहीं मिल सकता है।
हमारी संस्कृति में गुरु और शिक्षक का सम्बंध एक परस्पर भावनात्मक सम्बंध है। गुरु को देवता से ऊपर समझने वाली चेतना को बायजूस और अनएकेडमी के सालाना सब्सक्रिप्शन पूरी नही कर सकतें हैं।
ये एक खूबसूरत विकल्प हैं..समाधान नहीं! विकल्प कभी समाधान नही होता।
ये प्लास्टिक के गुलाब हैं..जिनके मुलायम कांटे भी दो साल में चुभने लगे हैं।
कैम्पस एक बगीचा है,जिसमें हमें सींचा जाता है.. और दुनियादारी के खुले संग्राम में मजबूती के साथ खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
ये बगीचा अब खुलना चाहिए,…
खुलना चाहिए।
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