काशी हिंदू विश्वविद्यालय में मेरा वो पहला साल था। खपरैल और टीन शेड के स्कूल से निकलकर एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का छात्र होने की प्रसन्नता मेरी आंखों में उसी मात्रा में चमक रही थी,जितनी आज नवोदित छात्रों के आंखों में चमकती है।
फ़र्क बस यही था कि तब ज़िंदगी इतनी स्मार्ट नहीं हुई थी,न ही इतनी ऑनलाइन।
तब हम मैत्री जलपान गृह में ग्यारह रुपया में नास्ता कर लेते थे और अठारह में भोजन। वीटी के छोले समोसे का वही शाश्वत स्वाद था,जो आज है।
वीटी तब भी डेटिंग का आदर्श स्थल था आज भी है।
लेकिन तब सयाजीराव गायकवाड़ लाइब्रेरी में कुछ लौंडे रोज पढ़ने जाते थे और बिना पढ़ाई किये शाम को चले आते थे।
और तय करते थे कि साला उस डबल चोटी वाली के चक्कर में लाइब्रेरी कौन जाएगा। मार्क जुकरबर्ग नें फेसबुक उसके लिए ही तो बनाया है,उस पर ही खोजते हैं।
तब आटा अठारह रुपया और डाटा का हाल ये था कि निन्यानबे में पाँच सौ बारह एमबी मिलता था। हीटर पर रोटी पकती थी और यूसी ब्राउजर में फेसबुक चलता था।
ले देकर एक-दो लाइक फेसबुक पर आता तो मन करता कि लाइक करनें वाले के घर जाकर उसे धन्यवाद दे आएँ और कहें कि सर जिसे मैं लाइक करता हूँ,वो तो कभी का अनलाइक कर चुकी लेकिन आपका लाइक करना,मुझे बार-बार ऑनलाइन आने के लिए मजबूर कर रहा है।
बहरहाल इसी ऑनलाइन होते साल में मेरे कुछ ऑफलाइन दोस्त बनें,जो म्यूजिक फैकल्टी में नहीं बल्कि आर्ट्स और सोशल साइंस फैकल्टी में पढ़ते थे।
इन मित्रों के पीछे मेरे एक सूत्रधार थे,वो थे ममेरे भाई थे सौरभ राय।
सौरभ आर्ट्स फैकल्टी में पढ़ते थे। एक कमरा लंका पर लिए हुए थे लेकिन पेशाब उनका बिड़ला में ही उतरता था।
आजकल मुखर्जीनगर में यूपीएससी से जूझ रहे होंगे।
एक और बचपन का दोस्त था विनीत राय ! आजकल स्टेट बैंक में शाखा प्रबंधक हो गया है। वो सोशल साइंस फैकल्टी में पढ़ता था और नरेंद्रदेव छात्रावास में रहता था।
इन दोनों के कारण मेरा बिड़ला और नरेंद्रदेव के कुछ लड़कों से दोस्ती हो गई। और आना-जाना लगा रहा।
उन्हीं दोस्तों में से एक थे जिला गोपालगंज के खाँटी रंगबाज, वेदांत मिसिर..
वेदांत नाटे कद के वो चिकने लौंडे थे जिनके मासूम चेहरे पर दाढ़ी-मूँछे आनीं अब शुरू हो रहीं थीं।
लेकिन वो हर जगह अपना रंग जमाने को बेताब रहते।
किसी नें उनको बताया कि गुरु बिड़ला की लंठई के इतिहास-भूगोल के मुताबिक रंगबाजी एक साल में नहीं जमती है। फर्स्ट ईयर तो बिड़ला का नक्शा समझने में ही व्यतीत हो जाता है।
बकौल शनिचर इस शिवपालगंज में आपको अपनी जोग्यता साबित करनी पड़ेगी।
बस उसी दिन वेदान्त जी नें प्रण कर लिया कि चाहें कुछ भी हो जाए जोग्यता पर जोग्यता ठेलकर मानेंगे.. भले स्वर्ग से बिड़ला आकर गोड़ पर गिर पड़े,लेकिन रंगबाजी करके रहेंगे।
बस उसी दिन मिसिर जी के नेता बनने की तैयारी शुरू हो गई।
अब तो आप जानते ही हैं कि अपने पूर्वाचल में नेतागिरी शुरू करने की पहली शर्त ये है कि या तो नाँच मंगवा दिया जाए या आर्केस्ट्रा।
नहीं तो किसी भोजपुरी गायक को बुलवा दिया जाए और हर गाने के अंत में भावी नेता जी की जय-जय करवा दी जाए।
बस इसी परम्परा को ध्यान में रखकर मिसिर जी नें बिड़ला में होली गायन का कार्य्रकम रख दिया।
और एक साँझ फोन करके कहा कि अतुल भाई हमने होली मिलन का कार्यक्रम रखा है,पूरा रीवा कोठी हॉस्टल बिड़ला में आमंत्रित है। आपको भी आना होगा..मेरी जोग्यता का सवाल है।”
हमनें कहा, ” एक तो करेला दूजे चढ़ा नीम पर ! यानी एक तो बिड़ला हॉस्टल,ऊपर से होली ! बिल्कुल आएंगे भाई।”
अगले दिन जल्दी-जल्दी ऑटो से बिड़ला पहुँचा तो देख रहा कि फगुआ गायन के साथ रंगबाजी अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी है। गायक महोदय अभी “हो” कहतें हैं ,तब तक सामने बैठे लौंडे “होली खेले रघुबीरा अवध में” गा देतें हैं।
तबला वाला समझ नहीं पा रहा कि सम कहाँ है और न बजाने की कसम कहाँ।
बीच-बीच में गालियों का कोरस भी एकदम सम पर गिर रहा है। और नमः पार्वतिपतये हर-हर महादेव! का पारम्परिक उदगार भी।
यानी मजमा जमा है। सब मौज छान रहें हैं।
तब तक हो गई हलचल…हुआ हल्ला, “का भइल रे?”
“कुछ न भइल ,होई कवनो भोसड़ीवाला, “गावा गुरु गावा…रुका मत…”
तब तक कोई चिल्लाया..
अरे! वार्डेनवा आ गइल रे.. !
इसको कौन फोन किया रे..?
पता न कौन ह..
मैं देख रहा। एक झटके में वार्डेन साहब सामने खड़े हैं। उनके माथे पर पसीना है। होठ सूख रहें हैं..और चश्मा निकालकर चिल्ला रहें हैं..
“किसने इजाज़त दी इस कार्यक्रम की ? कौन बोला कि ये कार्यक्रम किया जाए…?”
एक मिनट तक सब चुप रहे..
“इस कमरे में क्या है जी खोलो… ?”
अचानक एक सबसे शरीफ दिखने वाले छात्र नें कहा..
“बूटी की व्यवस्था की गई है सर! “
तब तक कहीं से आवाज़ आ रही..
“वार्डेनवा…”
दूसरे तरफ़ से आ रही है…
“भोसड़ी के…ss”
कहीं से कोई कह रहा..
“आ गइला मरवाए बुजरो के! चैन नाही मिलल तोहके ?”
देख रहा सब हँस रहें हैं.. वही लौंडई वाली हंसी..
लेकिन जैसे ही गाली मेरे कान में पड़ी,मेरे कान खड़े हो गए। कान खड़े होने का कारण गाली नहीं था बल्कि वार्डेन के साथ भोसड़ी और बुजरो का जो क्रांतिकारी और लयात्मक प्रयोग था, वो था।
कारण ये भी था कि मैं बीएचयू के सबसे संस्कारी संकाय में पढ़ता था। जहाँ गुरु मतलब देवता है और वार्डेन मतलब प्रधानमंत्री है।
हमारे हॉस्टल में वार्डेन आज भी आते हैं तो सारे लौंडे हाथ बाँधकर अपने कमरे से निकल आतें हैं और उनका पैर छूकर तब तक पीछे हाथ बांधकर खड़े रहते हैं, जब तक कि वो चले न जाएं।
कभी-कभी तो डर लगता है कि ज्यादा देर तक रूक गए तो ये मासूम लड़के कहीं अगरबती जलाकर प्रसादी न चढ़ा दें और समूचे अस्सी घाट पर हल्ला कर दें कि आज वार्डेन पूजन था,प्रसाद खाइए।
इसलिए मेरे जैसे लड़के का बिड़ला का ये खुला माहौल देखना एक कल्चरल शॉक का लगना था।
कार्यक्रम तुरंत बन्द हो गया… सब लोग खड़े हो गए।
गालियाँ आसमान से बरसती रहीं।
लेकिन गाली सुनते हुए लौंडो को डांटना वार्डेन साहब नें उसी अंदाज में जारी रखा।
जब सारे लोग चुप हो गए.. अबीर-ठंडई, रंग,तबला हारमोनियम सब उदास हो गए,तब तक वार्डेन साहब का हृदय परिवर्तन हुआ.. और उन्होंने जोर से आख़िरी बार डाँटा,
“कार्यक्रम करना था, तो बताना था न, हम भी आते हम भी सुनते,ये क्या बात हुई..कोई बात होगी प्रॉक्टर ऑफिस से मुझे फ़ोन आएगा…कल अखबारों में न्यूज छपेगा..आप लोग तो घर चले जाएंगे..जबाब हमको देना होगा..
“चलो शुरू करो।”
इतना सुनते ही सारी मुर्दा शांति एक झटके में समाप्त हो गई..
बिड़ला ए से ही नहीं, बी और सी से भी हर-हर महादेव की आवाज आने लगी..
मुझे याद है,हमारे सहपाठी मित्र नें तुरंत हारमोनियम संभाला और गाना शुरू किया..
“हंगामा है क्यों बरपा..थोड़ी सी जो पी ली है..”
मेरे लिए अगला शॉक ये था कि जो वार्डेन साहेब गाली देकर गाली सुन रहे थे,वो ज़मीन पर बैठकर इस ग़ज़ल की आगे वाली लाइन गा रहें हैं..
” डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है..”
और देखते ही देखते एक बदरंग होता माहौल फिर रंग में बंध गया। वार्डेन साहब को गाली देने वाले सारे लौंडों नें रंग लगा दिया..
वार्डेन साहब चले गए.. और हम भी बाहर आ गए..
बाहर आते ही एक लड़के नें बताया..
“भोसड़ी वाला,वार्डेनवा जब अपने जमाने में बिड़ला में रहकर पड़ता था,तब साला लुग्गा,ब्लाउज टँगा होता था इसके कमरे के आगे..आज आकर ज्ञान दे रहा.. “
हमारे हॉस्टल वाले खूब हँसे..
आज दस साल बाद जब मैं मुंबई में बनारस का अखबार खोलकर इस हफ़्ते का समाचार देख रहा हूँ तो न जानें क्यों हँसी आ रही है।
देख रहा कि बिड़ला वालों ने फिर एलबीएस वालों से होली खेलने के बहाने लाठी-डंडे निकल दिया है। वही गाली,वही गलौज और न जानें क्या-क्या !
मैं सोच रहा कि बिड़ला वालों ने होली में मार किया ये कोई समाचार है जी ?
समाचार तो उस दिन होगा जब ये लिखा जाएगा कि दस दिन से बिड़ला वालों नें कोई मार-पीट नहीं किया।
होली के दिन भी उदास रहा बिड़ला हॉस्टल। पेट्रोल बम बनाने की कला भूल गए विद्यार्थी.. नरेन्द्रदेव छात्रावास के छात्रों नें गले मिलकर माँगी माफी, आज के बाद कभी न लड़ने की खाई कसम।
रुईया वासियोंमें ख़ुशी की लहर..बिड़ला वाले नहीं फानेंगे चाहारदीवारी..
तब कोई समाचार होता.. ये भला कोई समाचार है ?
दिल से निकल रहा कि नज़र न लगे. तुझ पर बीएचयू..
आवो,एक काला टीका लगा दूँ। लोग कहते रहें कि सब हॉस्टलों में आवारा ही रहतें हैं।
लेकिन लोग नहीं जानते कि वो आवारापन एक उम्र विशेष से निकले उत्साह के अतिरेक का प्रवाह होता है। बिड़ला तो एक केंद्र है,जो इस शरीर में बह रहे स्थायी भाव का उद्दीपन स्थल बन जाता है।
ये सच है कि उसकी छवि लाख खराब होती है। लेकिन उससे निकलने वाले लड़के आज देश के उच्च पदों पर विराजमान हैं। जिसका कोई हिसाब नहीं है…
आज भी “मधुर-मनोहर अतीव सुंदर” सुनकर उनके रोएं खड़े हो जातें हैं।
आज भी बीएचयू की स्मृतियों का पन्ना उनके जीवन का सबसे रंगीन पन्ना है।
देख रहा, मुम्बई को पता नही की परसो होली है,तब बिड़ला के इस रंगीन पन्ने नें थोड़ी तसल्ली दी है।
मैं अब संतोष में हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि कोविड के बाद दुनिया बदल जाएगी लेकिन बिड़ला हॉस्टल नहीं बदलेगा।
उसकी होली वैसा ही रहेगा जैसा आज है और हमेशा से थी..
सारी मौलिकता उसके न बदलने में हैं। उसकी दीवारों में,परिवेश में समाया जादू हर साल अपना एक वेदांत मिसिर पैदा कर लेगा और हर साल अपनी होली… !
( स्मृतियों के रंग से )
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