आम के दिनों में सरेआम मार खाने का सुख याद करने बैठूं या आम के बगीचे में झूला झूलते हुए टहनी के टूट जाने का दुःख ? गिल्ली-डंडा के लिए मैदान खोजने की जद्दोहद याद करूँ या या बिना बिजली के शक्तिमान देखने के लिए प्रयोग में लाई गई अवैध शक्ति को याद करूँ ?
आंखों के सामने सतरंगी यादों का एक ऐसा सुंदर लैंडस्केप बनके उभरता है, जहां उजले आंसू भी मोती जान पड़तें हैं..जहां रोना भी संगीतमय लगता है। जहां खेलना भी ध्यान बन जाता है..जहां हंसना भी एक आध्यात्मिक अनुभव लगता है।
बात बस उन्हीं बचपन के दिनों से शुरू होती है। कक्षा पांचवीं पास करके हम छठवीं में जाने की तैयारी कर रहे थे। स्कूल खुलने में मुश्किल से दस-बारह दिन ही बचे थे। गर्मी इतनी थी कि छांव भी छाँव मांग रही थी। और पानी को भी प्यास लग रही थी। जानवर से लेकर आदमी और चिरई-चुरूंग तक सबकी हलक सुख रही थी। सुबह होते ही दोपहर हो रहा था और शाम होते ही ट्यूशन वाले सर आ जाते थे।
इधर बाग-बगीचे-फुलवारी में बड़े-बुजुर्गों का कब्जा हो चुका था……हम गलती से अगर बगीचे में चले जाते तो लोग ग्लोबल वार्मिंग को नहीं, हम बच्चों को गर्मी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण माना जाता। फुलवारी से निकलकर अगर हम जवानों के पास जाते तो उनका लगता कि उनके प्रेम प्रसंग की खबर पूरे गांव में लीक करने के पीछे हमीं लोगों का हाथ है। वो भी हमें भगा देते।
इस दुर्दिन में हम कही के नही रहे थे। हमें ये एहसास हो चुका था कि धोबी के गधे भी हमसे मजे में जी रहे हैं। कम से कम वो घाट जाकर पानी में नहा तो सकते हैं..हम तो बिना आज्ञा के टयूबेल पर भी नही जा सकते हैं।
इस अति रंजित हालत में ले-देकर हमारे पास दूरदर्शन का ही सहारा था। वही हमारे लिए दवा था और वही हमारे लिए रोग भी। सुबह उठकर आम खाने के बाद टीवी के सामने बैठकर बिजली आने के लिए पूजा-पाठ शुरू करना पड़ता। एक आदमी की ड्यूटी एंटीना ठीक करने और उसे आंधी से बचाने के लिए लगाई जाती। उसे बताया जाता कि भाई एंटीना अगर हिल गया तो रंगोली को कृषि दर्शन बदलने में एक सेकेंड का भी देर नहीं होगा।
एक दिन पूरे गांव भर की बिजली हाफ हो चुकी थी। छत पर लटका पंखा मंद गति से खटर-पटर करता हुआ बता रहा था कि बच्चों अब क्या, अब तो एक हफ्ते में स्कूल खुलने वाला है। फटाफट तैयारी करो…
तब तक अचानक लो वोल्टेज की समस्या ठीक हो गई..हम टीवी की तरफ भगे…और टीवी खोलते ही हमारे सबसे प्यारे साथी दूरदर्शन ने एक धमाकेदार सूचना दी..बच्चों, इस रविवार को हम दिखाने जा रहें हैं..!
हम सबकी आंखें चौड़ी हो गई…क्या आ रहा है भाई ? हमने देखा, साक्षात शाहरूख खान टीवी स्क्रीन पर नांच रहें हैं…तनिक और ध्यान से देखा तो पता चला शाहरुख खान नहीं बाजीगर है। जो जीत के हार जाए उसे बाजीगर कहतें हैं।
क्या संडे को बाज़ीगर आ रही ? मझली भाभी जो अभी नईहर से दहेज में टीवी लेकर आईं थी, उन्होंने झट से पूछ दिया.
हमने कहा, हं यही तो दुःख की बात है भाभी कि बाजीगर आ रही है वरना हम सब तो सनी देओल की फ़िल्म का इंतज़ार कर रहे थे।
भाभी ने कहा, अरे तो हम न इंतज़ार कर रहे थे शाहरूख की फ़िल्म का। भगवान ने हमारी सुन ली है। अब आएगा मजा।
“आएं मजा आएगा ? “ अरे मजा तो आपको आएगा भाभी जी, हमें तो कक्तई नहीं आएगा।
“काहें, काहें नहीं आएगा मज़ा, एक नम्बर की फ़िल्म है, डीडीएलजी हमने चार बार देखा है। बाजीगर देखिये तो कैसे नहीं आता है मजा ?”
हमने भाभी से कहा, “ऐसा है भाभी जी, हम हैं बच्चे लोग। हमें ‘हे सिमरन’ कहने वाला शाहरूख उतना नहीं भाता, जितना ये ढाई किलो का हाथ वाला सनी देओल भाता है। आपको देखना है तो देखिये हम लोग अब जा रहें है।”
भाभी ने कहा, जल्दी निकलिए.. कमरा खाली करिये..
हम सब कमरे से बाइज्जत निकल तो आए लेकिन शाहरुख खान का दिल टूटने से पहले हमारा दिल टूट जाने की ये पहली घटना थी।
हाय रे! हमारे सनी देओल आपकी की ऐसी बेइज्जती..
हम चारों में से सबसे छोटे चंडाल बबलू नें खालिस नास्तिक होते हुए कहा..इसलिए हम भगवान-वगवान पर भरोसा नही करते। आज एक हफ्ते से मनौती कर रहे हैं कि हे प्रभु जिद्दी या घायल डीडी वन पर आ जाए.. लेकिन ये क्या आ गया…बाजीगर ? अब लो देखो..सारी औरतें घेरकर बैठ जाएंगी।
हम तीन आस्तिकों का मुंह श्रद्धा से नीचे गिर गया.. चलो तब, सांप-सीढ़ी खेल लेते हैं। का करेंगे। ये सन्डे भी बर्बाद चला गया।
बबलू ने कहा, है कोई जगह खेलने की ? चार बज रहा है। अब तो मान लो कि भगवान नही होते। इतना कहते ही आसमान में जोर की हवा उठी और गर्जना के साथ आसमान में खूब बड़ा प्रकाश फैल गया।
चंडाल चौकड़ी के चंदन ने कहा, लगता है, भगवान बुरा मान गए भाई..इसलिए कहता हूँ.. भगवान को उल्टा सीधा मत कहो..सुन लिए तुम्हारी बात, नाराज़ हो गए…आ गई आंधी और बारिश अब भुगतो…
देखते ही देखते बिजली कड़कने लगी..मूसलाधार बारिश…थोड़ी देर में पता चला कि गर्मी से राहत तो मिल गई है लेकिन गाँव का ट्रांसफार्मर फूंक गया..पन्द्रह दिन बिजली नहीं आएगी।
अब बड़ी समस्या है कि मन कैसे लगेगा जी ? अपनी तो किस्मत ही खराब है ? हमनें तो कैरम खेल लिया, कॉमिक्स पढ़ लिया। छत पर सांप-सीढ़ी खेलते खेलते सीढ़ी से गिरक़र पैर में चोट भी लगवा लिया… सन्डे को बाजीगर भी झेल ही लेते लेकिन ये ट्रासंफार्मर?
दोस्तों, ट्रांसफार्मर का फूंकना हमारे ऊपर हुआ सीजन का पहला वज्रपात था। चंडाल चौकड़ी के वरिष्ठ चंडाल अनुज बाबू उर्फ लोटन ने सकारात्मकता का संदेश देते हुए कहा, भाई, ट्रांसफॉर्मर फूक गया तो क्या…छुट्टी बेकार नहीं जाने दिया जाएगा…गुल्लक फोड़कर वीसीआर मंगाते हैं औऱ मनपंसद फ़िल्म देखते हैं।
नई-नवेली भाभी जी ने हमारे इस प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा कि अगर वीसीआर पर सबसे पहले बाज़ीगर चलेगी तो मैं आप लोगों को पचास रुपया दे सकती हूं।
“अच्छा, और देखेंगे कहाँ ? कहीं जगह बचा है जो देखेंगे..?”
भाभी ने कहा, यहीं, रात को आंगन में सारे लोग इकठा होकर देख लेंगे। बाबा-दादी भी आ जाएंगे।
प्रस्ताव तो सुंदर था। बड़ी सी रंगीन टीवी, ढ़ेर सारे फिल्मों के कैसेट्स.. वीसीआर..न बिजली जाने का झंझट और न ही दूरदर्शन पर प्रचार देखने की मजबूरी.. भाई वीसीआर मंगाते हैं, मजा ही आ जाएगा..
कहते हैं, हर राग में कुछ विकृत स्वर होते हैं…पिंटू जी ने भाभी के प्रस्ताव का असमर्थन करते हुए सरकार गिरा दिया और कहा…अगर वीसीआर आया तो सबसे पहले दिलवाले घायल, बार्डर जीत और बेताब चलेगा वरना कुछ नहीं चलेगा।
भाभी ने अपनी जिद और बेताबी बढाते हुए कहा, तब वीसीआर नहीं आएगा, तुम लोग, जहां मन करे देखना है देखो..यहां पहले चलेगा तो सिर्फ बाज़ीगर…वरना बाबा से कहकर जय संतोषी मां लगवा दूँगी।
इस धमकी के बाद हम सबका दिल घायल हो गया। ऐसा लगा कि अब जिद छोड़ देने में ही भलाई है। हमारे बालसखा मनुज ने कहा, हटाओ यार, हटाओ, संडे को भाड़े पर बैटरी मंगाते हैं औऱ डीडी पर बाजीगर ही देख लेते हैं..भले सनी देवल वाला मजा नहीं है लेकिन कोई इतनी भी खराब फ़िल्म नहीं है।
वो क्या है कि टीवी वाले हमेशा मार-पीट तो नही दिखा सकते, सरकार कहती है समाज बिगड़ता है। इसलिए बीच-बीच में मारपीट रोककर थोड़ा प्यार,मोहब्ब्त भी देखते रहना ज़रूरी है।
मनुज की बात ने हम पर असर किया..इच्छाओं के अनंत पहाड़ पर चढ़कर गर्मी से हार चुका मन रविवार को बाजीगर देखने के लिए बेचैन होने लगा। उंगली पर गिनकर देखा कुल पांच दिन थे। इन दिनों इंजीनियर बन चुके रवि ने सवाल किया…ये बताओ, सन्डे को बैटरी मिल जाएगी न ?
बिलकुल मिलेगी, तुम दस रुपया दो, हम अभी बुक करके आतें हैं।
बहरहाल गिनते-गिनते रविवार आ गया..शाम को तीन बजे से ही टीवी घेरकर हम सब बैठ गए…फ़टाफ़ट बैटरी लाई गई..बैटरी आने से जो सबसे ज्यादा खुश हूई वो हमारी भाभी जी थी…उन्होंने कहा, अबकी बार लुधियाना से भइया आएँगे तो चूड़ी,बिंदी, टिकुली, सेनूर नहीं बल्कि सबसे पहले एक बैटरी और चार्जर ही मंगाएँगी…
पिंटू ने कहा,रमन की भाभी तो गुल्लक तोड़कर बैटरी खरीदी हैं। आप भी काहें नहीं खरीद लेती हैं ?
भाभी ने कहा, उ हमसे चार साल पहले ब्याहकर आई थी…ठीक है ? जल्दी से बैट्री लगाकर बाजीगर दिखाओ, बवाल न बतियाओ..
बैटरी लगी..लेकिन हम देख रहे हैं, बाज़ीगर तो नहीं आ रहा, विज्ञापन आ रहा है.. और विज्ञापन आते-आते अचानक टीवी की स्क्रीन छोटी होने लगी और टीवी से एक अजीबोगरीब आवाज आने लगी ,जिसका मतलब ये था कि भैया अब बैटरी को निकालो..क्योंकि ये खुद चार्ज नही है।
टीवी के सामने बैठे घर के बड़े बुजर्ग और बच्चों का सारा करेंट उड़ गया..ये बैटरी वाला लल्लन तो ठग दिया रे..ये तो बड़ा बेईमान आदमी है…इसकी दुकान पर अब बैटरी लेने कभी नहीं जाना है।।
सबके चेहरे लटक गये..एक ठंडा सन्नाटा पसर गया…ट्रांसफर तो फूंक ही गया था…बैट्री भी डिस्चार्ज हो गई..
चलो अब गुल्ली डंडा ही खेलते हैं..हम सब मुंह लटकाकर बाहर निकल गए..तभी हमारी नई-नवेली भाभी ने हमें देखा और प्यार से बुलाकर पांच सौ का नोट देते हुए कहा, जाइए वीसीआर लाइये..आज फ़िल्म चलेगा..
हाय, इस एक शब्द को सुनकर ऐसा लगा जैसे उजड़े चमन में बहार आ गई हो..तपते रेगिस्तान में बारिश हो रही हो।
गांव के पश्चिम टोले में हम चार लोग उसी समय वीसीआर वाले के पास दौड़कर भागे…भागने की स्पीड अगर उसैन बोल्ट देख लेते तो शरमा जाते। हमने वीसीआर वाले के पास जाकर कहा.. जिद्दी, घायल, बेताब,ग़दर, जानवर..
चंडाल चौकड़ी के पिंटू ने कहा, ये मत भूलो…पैसे नई वाली भाभी ने दिया है, बाजीगर भी लेना पड़ेगा। हं तो बाजीगर ले लो।
वीसीआर वाले भैया ने बाजीगर ले ली…देखते ही देखते पूरे टोले में ये खबर फैल गई कि ट्रांसफर फूंक जाने के गम में आज शक्ति बो भौजी के सौजन्य से सिनेमा चलेगा..
आस-पड़ोस की हर औरतों ने जल्दी-जल्दी भोजन बना लिया..चाचा-पापा टाइप के लोगों के लिए अलग से कुर्सी मंगाकर बैठने के लिए ऐसा सिटिंग अरेंजमेंट करना पड़ा ताकि गांव की औरतें सिनेमा देखते समय असहज न हो जाएं…
बहरहाल वो घड़ी आ गई..जिसका हमें बेसब्री से इंतज़ार था। वीसीआर वाले भैया ने कहा, अगरबती जलाइए…और बताइये, कौन सिनेमा पहले चलेगा ?
दादी ने कहा, पहले तो रामायण चलेगा.. बाबा भी इस बात से सहमत थे। बड़की मम्मी ने कहा, नदिया के पार लगा दो। एक बुद्धिजीवी किस्म के चाचा ने कहा, गाइड लगा दो, वही ठीक रहेगा…
देखते ही देखते सारे लोग अपनी अपनी पसन्द थोपने लगे। मामला घूम फिरकर फिर नई वाली भाभी के पास गया…
अरे नवकी बहुरिया का मन है न जी सिनेमा का..वो जो कहेगी वही सिनेमा चलेगा.
अब गेंद उनके पाले में थी। हम सब बच्चे ये जानते हुए कि बाज़ीगर ही पहले चलेगा.उनकी तरफ देखने लगे.पांच मिनट का सन्नाटा रहा…फिर.भाभी ने बड़ी देर तक सोचकर कहा…कोई सनी देओल की फ़िल्म लगा दो भइया..
हाय.. इतना बड़ा त्याग…हम बच्चे भाभी के चरण में गिर पड़े।।टीवी पर शुरू हुई फ़िल्म घायल..और आसमान में बारिश।
उस बारिश में ट्रांसफ़र फूंक जाने और बैटरी के डिस्चार्ज हो जाने से घायल पड़े मन को घायल देखकर जो मन को आराम मिला..आज उसके लिए शब्द नहीं है।
आज बीस साल पीछे की ये सब बातें किसी दूसरे जमाने की लगती हैं..
आज चंडाल चौकड़ी मुम्बई,पुणे बैंगलोर में शिफ्ट हो चुकी है। भाभी भी इंस्टाग्राम पर रिल्स बनाती हैं..हमारे गाँव के लड़के न अब सिनेमा देखने के लिए बैट्री मंगाते हैं और न ही वीसीआर..अब उनका जीवन ही रिल्स में सिमटकर एकाकी बन चुका है।
इस भागते हुए एकाकी हालात में उस ठहरे हुए दौर को बेमतलब का याद करते रहना क्यों जरूरी है, ये बहस का विषय है।
लेकिन आज भी उस गर्मी की याद, आज आत्मा के किसी कोने में जल रहे वक्त को ठंडा करती है..औऱ दिल कहता है..अभावों से भरा बचपन का वो सतरंगी संसार सच में कितना सुंदर था।