सवाल तो है कि जब बीस लाख करोड़ के पैकेज से आत्मनिर्भर भारत बनानें कि बातें की जा सकतीं हैं,तो कुछ सौ करोड़ ख़र्च करके इन पैदल चलते लोगों को इनके घर क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता है ?
सवाल तो है कि जब यही भीड़ नहीं रहेगी, तो आप किसके दम पर आत्मनिर्भर भारत बनाएंगे ?
आप भूल रहें हैं क्या कि यही भीड़ है,जिसनें दिल्ली को दिल्ली बनाया है।
मुंबई को चमकाया और सूरत की सूरत सुधारी है।
इन्हीं के दम पर फैक्ट्री हैं,धंधे हैं,मॉल हैं और पब हैं। आप इन्हीं के दम पर नेता हैं,पत्रकार हैं,बुद्धिजीवी हैं और हम लेखक हैं।
यही भीड़ है, जिसके सीने से निकलने वाले पसीने के दम पर आपके ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी का सपना खड़ा है।
यही भीड़ है,जो थाली बजाती है,दीये जलाती है और ठीक आठ बजे टीवी खोलकर आपका इंतज़ार करती है। लेकिन आप तो मुँह में गमछा बांधकर कुछ दिन से “मेरा भाषण ही तेरा राशन है” वाली मुद्रा में हैं।
इधर भीड़ खाली पेट बीस लाख करोड़ के जीरो गिनते हुए सोच रही है कि आत्मनिर्भर भारत के विज्ञापन में वो कहाँ खड़ी होगी। पैदल चलते लोगों की थकी आँखें जानना चाहती हैं कि देश और राज्यों का ये कौन सा तन्त्र है, जो अपने नागरिकों को उनके घर नहीं पहुंचा सकता है ?
क्या इतने संसाधन विहीन थे हम ? शायद नहीं।
इसलिए माफ़ करें प्रधानमंत्री जी। हमारी भोजपुरी में एक कहावत कही जाती है।
“लग्गी से पानी जन पियाव रे बाबू..”
अब इस देश का तन्त्र जनता को लग्गी से पानी पिया रहा है।
जिनको तत्काल खाना और पानी चाहिए, उसे आत्मनिर्भर और लोकल से वोकल का मंत्र देकर बीस लाख करोड़ के जीरो गिनवा रहा है।
लेकिन दिक़्क़त है कि मुझे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए थी। मुझे डरना चाहिए था, क्योंकि अब मुझे भी सर्टिफिकेट दे दिया जाएगा।
कहा जाएगा कि तुम क्या जानो देश कैसे चलता है ?
मैं भी जानता हूँ कि कमरे में बैठकर बातें करना दुनिया का सबसे आसान काम है।
लेकिन इस सवाल से कैसे मुँह मोड़ लूं कि जब बीस लाख करोड़ ख़र्च करके इकोनॉमी बचाया जा सकता है तो कुछ सौ करोड़ ख़र्च करके इन इकोनॉमी बचाने वालों को क्यों नहीं बचाया जा सकता है!
लेकिन मैं देख रहा हूँ,इस देश के बौद्धिक चलन को!
यहाँ सवाल करनें वाले हाशिये पर ढकेल दिए जातें हैं और सवाल से समर्थन और विरोध करनें वाले मजे में रहतें हैं।
मुझे अब यक़ीन हो गया है कि अब यहाँ दो ही किस्म के लोग बचें रहेंगे..या तो वो आंख मूदकर किसी के समर्थन में खड़ें हैं या आंख मूदकर किसी के विरोध में।
या तो वो किसी को भगवान मानतें हैं,या किसी को शैतान।
लेकिन न जानें क्यों। मुझे अब इन दोनों अतियों से चिढ़ होनें लगी है।
यही कारण है कि मेरे जैसे आदमी नें लिखना कम कर दिया।
और ये देखकर हैरान रह गया कि यहाँ मोदी की आलोचना करने पर भीड़ से निकला एक भक्त किसी को वामपंथी और कांग्रेसी बता देता है।
अगर आपने उलटकर राजमाता और उनके युवराज से या फिर बाबूजी की राजनीति विरासत ढ़ो रहे राजनीतिक राजकुमारों से सवाल कर दिया तो एक सेक्युलर बुद्धिजीवी आपको “भक्त” का सर्टिफिकेट लाल कागज़ पर जारी कर देता है।
वहीं आपने ग़लती से वामपंथियो की बौद्धिक बेइमनियो को आईना दिखा दिया, तब तो आप इस तथाकथित समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं।
यही कारण है कि मैंनें मान लिया है कि यहाँ सन्तुलन मुश्किल है। सत्य एक भ्रम है। निरपेक्षता एक ढोंग है औऱ संवेदना एक बाज़ार है।
एक बुद्धिजीवी अपने हिस्से का सामान लेकर, बाज़ार में जब तक घूमता रहता है,तब तक वो प्रासंगिक बना रहता है।
वरना ग़ायब हो जाता है।
मुझे यक़ीन हो गया है कि मेरे जैसे लोग शायद नहीं पढ़ें जाएँगे। क्योंकि अब वो हर वक़्त किसी का गुणगान या विरोध करने की कला में शायद माहिर नहीं हो पाएंगे।
लेकिन इतना तो तय है कि हम प्रासंगिक बनें रहें या नहीं। साहित्यकार कहे जाएंगे या नहीं। लेकिन जब भी देश के हाशिये पर खड़े आम आदमी के ऊपर संकट आएगा,तब न हम किसी सत्ता के साथ रहेंगे न ही किसी विपक्ष के साथ।
हम अटैची पर अपनी संतान को लेकर रोड पर घसीटनें वाली माँ के साथ ही खड़े रहेंगे।
हम उन हाथों के साथ खड़े रहेंगे, जिन हाथों को थामने वाला कोई बचा नहीं है।
हम उन आंखों के साथ खड़े रहेंगे..जो पानी की खाली बोतलों और भोजन के बिखरे पैकेटों को टुकुर-टुकुर देखकर अपनी किस्मत को कोस रहीं हैं।
हम उन पैरों के साथ खड़े रहेंगे,जो अपने मरे हुए सपने को लेकर वक़्त की कठिन चढ़ाइयाँ चढ़ रहें हैं।
हम तय करेंगे कि भूख के साहित्य और मजबूरी की कविता को लाचारी के छंदों में लपेटकर कभी न बेचें।
हम पहले आईना देखेंगे और दूसरों को दिखाएंगे। क्योंकि सत्तर सालों से अंधे ही आईने बेचतें आएं हैं और हम इन आइनों में अपनी मन पसन्द छवियां देखतें आएं हैं।
इस महामारी में अब इस चलन को ख़ारिज करने की ज़रूरत है। इसको सिरे से नकारने की ज़रूरत है।
आज ज़रूरत है कि सरकार किसी की हो । जहाँ ज़रूरत हो उससे सवाल किया जाए। काम अच्छा हो तो तारीफ़ की जाए और ग़लत हो तो झट से विरोध किया जाए..मन करे तो सलाह दिया जाए।
क्योंकि ज़रूरी नहीं है कि आप अपने कमरे में इस पोस्ट को पढ़ते हुए बचे रहेंगे। ये भयानक दौर है। कोई भरोसा नहीं।
कल आप भी अपने भूखे बच्चे को लेकर इस पैदल चलती मजबूर भीड़ का हिस्सा हो सकतें हैं।
आप भी भूख और प्यास से चिल्ला सकतें हैं।
और तब…..
तब शायद आपको सोचकर अफ़सोस होगा कि इस अंध विरोध और अंध समर्थन की परम्परा ने सत्तर सालों से इस देश की जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा किया है।
अतुल कुमार राय